Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई, वासाइं सामण्ण परियागं पाउणंति पाउणित्ता अबाहंसि उप्पण्णंसि वा, अणुप्पण्णंसि वा, बहूई भत्ताइं पच्चक्खंति, पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदिंति, अणसणाए छेदित्ता, जस्सट्ठाए कीरइ णग्गभावे, मुंडभावे, अण्हाणभावे, अदंतवणगे, अछत्तए, अणोवाहणए, भूमिसेज्जा, फलगसेज्जा, कट्ठसेज्जा, केसलोए, बंभचेरवासे, पर-घर पवेसे, लद्धावलद्धे, माणावमाणणाओ, हीलणाओ, णिंदणाओ, खिंसणाओ, गरहणाओ, तज्जणाओ, तालणाओ, उच्चावया, गाम- कंटगा, बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जंति, तमट्ठ आराहंति; तमट्ठे आराहित्ता चरमेहिं उस्सास - णिस्सासेहिं अनंतं, अणुत्तरं, णिव्वाघायं, णिरावरणं, कसिणं, पडिपुण्णं, केवल वर - णाण- दंसणं समुप्पाडेंति, समुप्पाडित्ता तओ पच्छा सिज्झंति, बुज्झंति, मुच्चंति, परिणिव्वायंति सव्व- दुक्खाणं अंतं करेंति । कठिन शब्दार्थ - णिरुवलेवा - कर्म मल के लेप से रहित, णिरंजणा - निरंजन, अप्पडिहयगईअप्रतिहत गति वाले, णिरावलंबणा आलंबन रहित, सारदसलिलमिव सुद्धहियया- शरद ऋतु के निर्मल जल की तरह शुद्ध हृदय वाले, पुक्खरपत्तं - पुष्कर पत्र- कमल पत्र, खग्गिविसाणं - गेंडे का सींग, सोंडीरा - बहादुर, जायत्थामा भार वहन करने में समर्थ, दुद्धरिसा - अपराजेय, सव्वफ़ासविसहा - सभी स्पर्शों को सहन करने वाले, उग्गहे - अवग्रह, पग्गहे - प्रग्रह, उक्खित्त णिक्खित्त चरगा - उत्क्षिप्त निक्षिप्त चरक, संसट्ठचरगा संसृष्ट चरक, दिट्ठलाभिया - दृष्ट लाभिक, उवणिहिया - औपनिधिक, पुरिमडिया - पूर्वार्धिक, णिव्विगइया निर्विकृतिक, ठाणाइया स्थानायतिक, अवाउडा- अप्रावृतक, अगत्तया - अगात्रक, अकंडूया - अकण्डूयक, अणि थंक बाहर नहीं फैकने वाले, सव्वगायपडिकम्म-विप्पमुक्का - सर्वगात्र परिकर्म विमुक्त समस्त शरीर को सजाने संवारने से मुक्त ।
•
भावार्थ - वे धार्मिक पुरुष अगार यानी घर दारा (स्त्री) से रहित और बड़े भाग्यवान् होते हैं। वे ईर्या समिति तथा भाषा समिति को यथाविधि पालन करते हैं, वे एषणा समिति तथा पात्र और वस्त्र आदि धर्मोपकरणों को ग्रहण करने और रखने की समिति से युक्त होते हैं, वे महापुरुष बड़ी नीत लघुनीत खंखार तथा नाक और शरीर के मल को शास्त्रोक्त रीति से डालते हैं, वे मन, वचन और काय समिति से युक्त होते हैं, वे मन, वचन और काया को पाप से गुप्त रखते हैं वे अपने इन्द्रियों को विषयभोग से गुप्त रखते हुए ब्रह्मचर्य पालन करते हैं। वे क्रोध मान माया और लोभ से रहित होते हैं, वे शान्ति, उत्तम शान्ति एवं बाहर और भीतर की शान्ति से युक्त और समस्त सन्तापों से रहित होते हैं ।
७८
Jain Education International
-
-
For Personal & Private Use Only
-
-
www.jainelibrary.org