Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
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हैं। ठण्डक के दिनों में उन्हें बर्फ के समान ठंडे जल में गिरा देते हैं तथा गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर गर्म जल डाल कर कष्ट देते हैं एवं अग्नि मर्म लोहा या गर्म तेल छिड़क कर उनके शरीर को जला देते हैं तथा बेंत, रस्सी या छड़ी आदि से मार कर उनके शरीर का चमड़ा उखाड़ देते हैं । ऐसे पुरुष जब घर पर रहते हैं तब उसके परिवार वाले दुःखी रहते हैं और उनके घर से बाहर या परदेश चले जाने पर वे सुखी रहते हैं। ऐसे पुरुष इस लोक में अपना तथा दूसरे का दोनों का अहित करते हैं और मरने के पश्चात् वे परलोक में अत्यन्त क्रोधी और परोक्ष में निन्दा करने वाले होते हैं । ऐसे पुरुष मित्रदोषप्रत्ययिक क्रिया के स्थान हैं । यही दशवें क्रियास्थान का स्वरूप है ॥२६॥
विवेचन - ऐसा पुरुष अपने कुटुम्ब परिवार तथा मित्रजनों को थोड़ासा अपराध हो जाने पर भारी दण्ड देता है। इससे परिवार वाले तो दुःखी रहते ही है परन्तु वह स्वयं भी क्रोध से तमतमाया हुआ दुःखी रहता है। इस क्रिया के निमित्त से उसे पापकर्म का बन्ध होता है।
अहावरे एक्कारसमे किरिय-ट्ठाणे माया वत्तिए त्ति आहिज्जइ । जे इमे भवंति गूढायारा, तमोकसिया, उलुग-पत्त-लहुया, पव्वय-गुरुया, ते आरिया वि संता अणारिवाओ भासाओ वि पउज्जति; अण्णहा संतं अप्पाणं अण्णहा मण्णंति; अण्णं पुट्ठा अण्णं वागरंति; अण्णं आइक्खियव्वं अण्णं आइक्खंति । से जहा णामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले तं सलं णो सयं णिहरइ, णो अण्णेणं णिहरावेइ, णो पडिविद्धंसेइ एवमेव णिण्हवेइ, अविउट्टमाणे अंतो-अंतो रियइ, एव-मेव माई मायं कट्ट णो आलोएइ, णो पडिक्कमेइ, णो जिंदइ, णो गरहइ, णो विउट्टइ, णो विसोहेइ, णो अकरणाए अब्भुढेइ, णो अहारिहं तवो-कम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जइ माई अस्सिं लोए पच्चायाइ, माई परंसि लोए (पुणो पुणो) पच्चायाइ, णिंदा, गरहइ, पसंसइ, णिच्चरइ, ण णियट्टइ, णिसिरियं दंडं छाएइ, माई असमाहड-सुहलेस्से या वि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ । एक्कारसमे किरिय-ट्ठाणे माया-वत्तिए त्ति आहिए ॥२७॥ ___ कठिन शब्दार्थ - गूढायारा - गूढ आचार वाले, तमोकसिया - अंधेरे में-छिप कर बुरी क्रिया करने वाले, उलूगपत्तलहुया - उल्लू के पंख के समान हल्के, पव्ययगुरुया - पर्वत के समान भारी, अणारियाओ - अनार्य, पउज्जति - प्रयोग करते (बोलते) हैं, अंतोसल्ले - भीतरी शल्य वाला, णिहरइ- . निकालता है, पडिविद्धंसेइ - नाश करता है, विउट्टा - विवर्तन करता है, पच्चायाइ - जन्म लेता है, णिच्चरइ - ज्यादा असत् कार्य करता है, णिसिरियं - निकाले हुए, असमाहडसुहलेस्से - शुभलेश्या (विचार) से रहित ।
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