Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
अध्ययन २
६५
दूसरों से भी हरण कराते हैं तथा हरण करते हुए को अच्छा समझते हैं । जो पुरुष किसी अपमान आदि कारणों से ऐसा करता है वह भी महापापी है फिर बिना ही कारण ऐसा करने वाला तो उससे भी बढ़ कर महापापी है इसमें तो सन्देह ही क्या है ।।
· से एगइओ समणं वा माहणं वा दिस्सा णाणाविहेहिं पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ अदुवा णं अच्छराए आफालित्ता भवइ अदुवा णं फरुसं वदित्ता भवइ । कालेण वि से अणुपविट्ठस्स असणं वा पाणं वा जाव णो दवावेत्ता भवइ ।
भावार्थ - कोई पुरुष साधु को देखकर उनके प्रति अनेक पापमय व्यवहार करता है वह साधु को देखना भी न चाहता हुआ सामने से उन्हें हट जाने के लिये चुटकी बजाता है तथा कटु वाक्य कह कर साधु को पीड़ित करता है । जब साधु उसके घर पर गोचरी के समय गोचरी के निमित्त जाते हैं तो वह उन्हें अशनादिक आहार नहीं देता है । . जे इमे भवंति वोणमंता भारक्कंता अलसगा वसलगा किवणगा समणगा पव्वयंति।
कठिन शब्दार्थ - कोणमंता - व्युनमान-बिचारे, दीन, भारक्कंता - भार वहन करने वाले, अलसगा - आलसी, वसलगा- वृषल नीच, किवणगा - क्लीव-गरीब, दीन।
भावार्थ - वह पापी पुरुष कहता है कि ये जो भारवहन आदि नीचे कर्म करने वाले दरिद्र शूद्र हैं वे आलस्य के कारण श्रमण दीक्षा लेकर सुखी बनने की चेष्टा करते हैं ।
ते इणमेव जीवियं धिज्जीवियं संपडिबूहेंति, णाइ ते परलोगस्स अट्ठाए किंचि वि सिलीसंति । ते दुक्खंति, ते सोयंति, ते जूरंति, ते तिप्पंति, ते पिटुंति, ते परितप्पंति, ते दुक्खण, जूरण, सोयण, तिप्पण, पिट्टण, परितिप्पण, वह-बंधण-परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति । ते महया आरंभेणं, ते महया समारंभेणं, ते महया आरंभसमारंभेणं, विरूवरूवेहिं पावकम्म-किच्चेहिं उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजित्तारो भवंति । तं जहा-अण्णं अण्णकाले, पाणं पाणकाले, वत्थं वत्थकाले, लेणं लेणकाले, सयणं सयणकाले, स-पुव्वावरं च णं ण्हाए कयबलिकम्मे, कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते, सिरसा बहाए, कंठे मालाकडे, आविद्ध-मणिसुवण्णे, कप्पिय-माला-मउली, पडिबद्ध-सरीरे, वग्यारिय-सोणिसुत्तग-मल्ल-दामकलावे,अहय-वस्थपरिहिए, चंदणोक्खित्त-गायसरीरे, महइ-महालियाए कूडागारसालाए, महइ-महालयंसि सीहासणंसि, इत्थी-गुम्म-संपरिवुडे सव्व-राइएणं जोइणा झियाय-माणेणं मह याहय-णट्ट-गीय-वाइय-तंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडूपवाइयरवेणं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org