Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
७०
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
अर्थात् मठ या कुटीर बनाकर रहने वाले तापस, गामणियंतिया - गांव के नजदीक रहने वाले तापस, कण्हुइरहस्सिया - एकान्त स्थान में रहकर ध्यान मौन आदि करने वाले तापस।। - भावार्थ - जिस स्थान में पाप और पुण्य दोनों का योग है उसे मिश्र स्थान कहते हैं। इसके कई भेद हैं । जिसमें पुण्य और पाप दोनों ही बराबर हैं वह भी मिश्र स्थान कहलाता है और जिसमें पाप बहुत अधिक और पुण्य बिलकुल अल्पमात्रा में है वह भी मिश्र स्थान है । यहां उस मिश्रस्थान का वर्णन है जिसमें पुण्य बिलकुल अल्प और पाप बहुत अधिक है क्योंकि - इसे शास्त्रकार बिलकुल मिथ्या और बुरा बतलाते हैं यह उसी हालत में हो सकता है जबकि पुण्य का अंश बिलकुल नगण्य-सा हो । यह स्थान तापसों का है जो जंगल में निवास करते हैं तथा कोई कुटी बनाकर रहते हैं एवं कोई ग्राम की सीमा के ऊपर रहते हैं । ये तापस अपने को धार्मिक और मोक्षार्थी बतलाते हैं । इनकी प्राणातिपात आदि दोषों से किञ्चित् निवृत्ति भी देखी जाती है परन्तु वह नहीं के बराबर ही है क्योंकि - इनका हृदय मिथ्यात्वमल से दूषित होता है तथा इनको जीव और अजीव का विवेक भी नहीं होता है अतः ये जिस मार्ग का सेवन करते हैं उसमें पाप बहुत और पुण्य बिलकुल अल्प मात्रा में है । अतः इनके स्थान को यहां मिश्रस्थान कहा है । ये लोग मरने के पश्चात् किल्विषी देवता होते हैं और फिर वहां से मरकर मनुष्य लोक में गूंगे और अन्धे होते हैं इस कारण इनका जो स्थान है, वह आर्यजनों के योग्य नहीं है, वह केवलज्ञान को उत्पन्न करनेवाला और सब दुःखों का नाश करने वाला नहीं हैं किन्तु एकान्त मिथ्या और अनाचरणीय है। यह तीसरा मिश्र स्थान का वर्णन समाप्त हुआ ।। ३४॥
- विवेचन - जिस पक्ष में पुण्य तो बहुत अल्प मात्रा में हो तथा पाप बहुत अधिक मात्रा में हो उसको मिश्रपक्ष कहते हैं। यद्यपि इसके अधिकारी मिथ्या दृष्टि होते हैं और वे अपनी मान्यता के अनुसार हिंसा आदि से निवृत्ति भी करते हैं तथापि मिथ्यात्वयुक्त होने से (अशुद्ध होने से) ऊषर भूमि पर पड़ी हुई वर्षा की तरह तथा पित्तप्रकोप में शर्करा मिश्रित दुग्ध पान की तरह विपरीत अर्थ का उत्तेजक होने के कारण मोक्षार्थ को सिद्ध नहीं कर सकते हैं। इसलिये उनकी निवृत्ति निरर्थक है। मिथ्यात्व के तीव्र प्रभाव के कारण मिश्र पक्ष को अधर्म मय ही समझना चाहिए।
इस मिश्र पक्ष के अधिकारी कन्दमूल व फल खाने वाले तापस आदि होते हैं। ये किसी पापस्थान । से किञ्चित निवृत होते हुए भी इनकी मान्यता प्रबल मिथ्यात्व से युक्त होती है। इन में से कई उपवास आदि तथा अन्य भी तीव्र कायक्लेश के कारण देवगति में जाते हैं परन्तु देवपना प्राप्त करके भी वहाँ हल्की जाति की असुरी योनि किल्विषीक देव आदि रूप से उत्पन्न होते हैं। वहाँ का आयुष्य पूरा करके यहाँ मनुष्य लोक में आते हैं तो जन्म से अन्धे, गूंगे, बहरे आदि होते हैं।
ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि मोक्षार्थी पुरुषों को इस प्रकार के मार्ग का सेवन नहीं करना चाहिए।
अहावरे पढमस्स ठाणस्स अहम्म-पक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ । इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति-गिहत्था महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org