Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन २
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हुआ है। इसी तरह स्नान के वर्णन के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि जहाँ 'कयबलिकम्मे' शब्द आता है वहाँ स्नान सम्बन्धी सारा वर्णन है ऐसा समझ लेना चाहिए।
. तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा आवुत्ता चेव अब्भुटुंति - 'भणह देवाणुप्पिया ! किं करेमो ? किं आहरेमो ? किं उवणेमो ? किं आचिट्ठामो ? किं भे हियं इच्छियं ? किं भे आसगस्स सयइ ?' तमेव पासित्ता अणारिया एवं वयंति - 'देवे खलु अयं पुरिसे । देवसिणाए खलु अयं पुरिसे । देवजीवणिज्जे खलु अयं पुरिसे । अण्णे वि य णं उवजीवंति । तमेव पासित्ता आरिया वयंति- 'अभिक्कंत-कूरकम्मे खलु अयं पुरिसे । अइधुए, अइयाय-रक्खे, दाहिणगामिए णेरइए, कण्ह पक्खिए आगमिस्साणं दुलह-बोहियाए यावि भविस्सइ ।' ... कठिन शब्दार्थ - आणवेमाणस्स - आज्ञा देने पर, आहरेमो - लाएं, उवहरेमो - भेंट करे, देवसिणाए - देव स्नातक, देवजीवणिजे - देव जीवन जीने वाला, अभिक्कतकूरकम्मे - अत्यंत क्रूर कर्म करने वाला, अइधुए - अतिधूर्त, दाहिणगामिए - दक्षिण दिशा में जाने वाला, कण्हपक्खिए - कृष्णपाक्षिक, दुल्लहबोहियाए - दुर्लभबोधि ।।
भावार्थ - वह पुरुष जब किसी एक मनुष्य को कुछ आज्ञा देता है तो बिना कहे ही चार पाँच मनुष्य खड़े हो जाते हैं । वे कहते हैं कि - हे देवानुप्रिय ! बतलाइये हम आपकी क्या सेवा करें ? कौन सी वस्तु आपको प्रिय है जिसे लाकर हम आपका प्रिय करें ? आपके मुख को कौनसी वस्तु रुचिकर है सो बताईये इत्यादि । इस प्रकार सेवक वृन्दों से सेवा किये जाते हुए तथा उत्तमोत्तम विषयों को भोगते हुए उस पुरुष को देख कर अनार्य पुरुष उसे बहुत उत्तम समझते हैं वे कहते हैं कि - यह पुरुष मनुष्य नहीं किन्तु देवता है। यह देवजीवन व्यतीत कर रहा है इसके बराबर सुखी जगत् में कोई नहीं है। दूसरे लोग जो इनकी सेवा करते हैं ये भी आनन्द भोगते हैं अतः यह पुरुष महाभाग्यवान् है इत्यादि । . परन्तु जो पुरुष विवेकी हैं वे उस विषयी जीव को भाग्यवान् नहीं कहते वे तो उसे अत्यन्त क्रूर कर्म करने वाला अतिधूर्त और विषय की प्राप्ति के लिए अत्यन्त पाप करने वाला कहते हैं । यह दक्षिण दिशा के नरक में जाने वाला है। ऐसा मनुष्य नरकगामी, कृष्णपक्षी और भविष्य में दुर्लभबोधी होता है, ऐसा आर्य पुरुष कहते हैं। ..
इच्चेयस्स ठाणस्स उट्ठिया वेगे अभिगिझंति, अणुट्ठिया वेगे अभिगिझंति, अभिझंझाउरा वेगे अभिगिझंति । एस ठाणे अणारिये, अकेवले, अप्पडिपुण्णे, अणेयाउए, असंसुद्धे, असल्लगत्तणे, असिद्धिमग्गे, अमुत्तिमग्गे, अणिव्वाणमग्गे, अणिज्जाण-मग्गे, असव्व-दुक्ख-पहीण-मग्गे, एगंतमिच्छे, असाहु, एस खलु पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥३२॥
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