Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
से कोई भी एक अवश्य विद्यमान रहते हैं इसलिये उनको साम्परायिक कर्म बन्ध होता है परन्तु जिसमें प्रमाद और कषाय आदि नहीं हैं किन्तु एक मात्र योग विद्यमान है उसको ऐर्यापथिकी क्रिया का बन्ध होता है।
श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि - यह जो तेरह क्रियास्थानों का वर्णन मैंने किया है यह सब तीर्थंकरों के द्वारा कहा हुआ है अतः इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं करना चाहिये ।। २९ ॥
विवेचन - गुणस्थानों की दृष्टि से क्रिया के दो भेद किये गये हैं। पहले गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक के जीवों में साम्परायिक क्रिया का बन्ध होता है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवी जीवों के ऐर्यापथिक क्रिया का बन्ध होता है। पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांचों में से कोई न कोई अवश्य विद्यमान रहता है
और जहाँ तक कषाय है वहाँ तक साम्परायिक क्रिया का बन्ध होता है। दसवें गुणस्थान से आगे तेरहवें गुणस्थान तक कषाय का उदय नहीं रहता सिर्फ योग विद्यमान रहता है। इसलिये योगों के निमित्त से वहाँ सिर्फ ऐर्याथिक कर्म का बन्ध होता है औ वह भी सुख और साता रूप केवल प्रदेश बन्ध होता है। स्थिति बन्ध नहीं। क्योंकि स्थिति बन्ध वहीं होता है जहां कषाय विद्यमान होता है।
ऐर्यापथिक क्रिया इतनी सूक्ष्म होती है कि प्रथम समय में इसका बन्ध और स्पर्श हो जाता है। दूसरे समय में वेदन और तीसरे समय में निर्जरा हो जाती है। इस दृष्टि से कषाय रहित वीतराग पुरुष को भी सयोग अवस्था तक इस क्रिया का बन्ध होता है। केवलज्ञानी सयोग अवस्था में सर्वथा निश्चल और निष्कम्प नहीं रह सकते क्योंकि उनमें मन, वचन, काया के योग विद्यमान रहते हैं और ऐर्यापथिक क्रिया इतनी सूक्ष्म है कि धीरे से आंख की पलक गिराने पर भी यह क्रिया लग जाती है। चौदहवें गुणस्थान में यह क्रिया नहीं लगती है क्योंकि वह अयोगी अवस्था है। __अदुत्तरं च णं पुरिस-विजयं विभंग-माइ-क्खिस्सामि । इह खलु णाणा-पण्णाणं, णाणा-छंदाणं, णाणा-सीलाणं, णाणा-दिट्ठीणंणाणा-रुईणं, णाणा-रंभाणं, णाणाझवसाण-संजुत्ताणं, णाणाविह-पाव-सुय-ज्झयणं एवं भवइ । तं जहा- १. भोमं २. उप्पायं ३. सुविणं ४. अंतलिक्खं ५. अंगं ६. सरं ७. लक्खणं ८. वंजणं ९. इत्थिलक्खणं १०. पुरिस-लक्खणं ११. हय-लक्खणं १२. गय-लक्खणं १३. गोणलक्खणं १४. मिंढ-लक्खणं १५. कुक्कड-लक्खणं १६. तित्तिर-लक्खणं १७. वट्टग-लक्खणं १८. लावय-लक्खणं १९. चक्क-लक्खणं २०. छत्त-लक्खणं २१. चम्म-लक्खणं २२. दंड-लक्खणं २३. असि-लक्खणं २४. मणि-लक्खणं २५. कागिणी-लक्खणं, २६. सुभगाकरं २७. दुब्भगाकरं २८. गब्भकरं २९. मोहणकरं ३०. आहव्वणिं ३१. पागसासणिं ३२. दव्यहोमं ३३. खत्तिय-विग्जं ३४. चंद-चरियं
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