Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२८.
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
अक्रियावादी अक्रिया का प्रतिपादन करता है। नियति के अधीन होने के कारण हम दोनों को समान ही समझते हैं । इस जगत् में ऐसा कोई पुरुष नहीं है जिसको अपना आत्मा अप्रिय हो, ऐसी दशा में कोई भी जीव आत्मा को कष्ट देने वाली क्रिया में किस तरह प्रवृत्त हो सकता है ? अतः यह मानना पड़ता है कि जीव स्वाधीन नहीं है वह नियति के वशीभूत है। अतएव अपनी इच्छा न होने पर भी नियति की प्रेरणा से जीव को दुःखजनक क्रिया में प्रवृत्ति करनी पड़ती है एवं शुभ अनुष्ठान करने वाले भी दुःखी और अशुभ कर्म करने वाले भी सुखी देखे जाते हैं इससे भी नियति की प्रबलता सिद्ध होती है। _ इस प्रकार एक नियति को समस्त कार्यों का कारण मान कर नियतिवादी परलोक का भय नहीं करते हैं । वे अपने भोग के लिये बुरे से बुरे कार्य करने में भी संकोच नहीं करते हैं । वस्तुतः यह नियतिवाद युक्तिसंगत न होने के कारण मानने योग्य नहीं है । इस मत की अयौक्तिकता इस प्रकार समझनी चाहिये-जो वस्तु को उनके स्वभावों में नियत करती है उसे नियति कहते हैं। वह यदि अपने अपने स्वभावों में वस्तुओं को नियत करने के लिये मानी जाती है तो फिर नियति को नियति के स्वभाव में नियत रखने के लिये उस नियति से भिन्न एक दूसरी नियति और माननी चाहिये अन्यथा वह नियति दूसरी नियति की सहायता के बिना अपने स्वभाव में किस तरह नियत रह सकती है ? यदि कहो कि नियति अपने स्वभाव में अपने आप ही नियत रहती है इसीलिये दूसरी नियति की आवश्यकता नहीं है तो इसी तरह यह भी समझो कि - सभी पदार्थ अपने अपने स्वभाव में स्वयमेव नियत रहते हैं इसलिये उन्हें अपने स्वभाव में नियत करने के लिये नियति नामक एक दूसरे पदार्थ की कोई आवश्यकता नहीं है।
नियतिवादी ने जो यह कहा है कि - "क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों ही नियति के वशीभूत होकर क्रियावाद और अक्रियावाद का समर्थन करते हैं इसलिये ये दोनों ही समान हैं" यह कथन सर्वथा असंगत है क्योंकि क्रियावादी क्रियावाद का समर्थन करता है और अक्रियावादी अक्रियावाद का निरूपण करता है इसलिये इनकी भिन्नता स्पष्ट होने से किसी प्रकार भी तुल्यता नहीं है। यदि कहो कि-ये दोनों नियति के वशीभूत होने के कारण तुल्य हैं तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि नियति की सिद्धि किए बिना इन दोनों पुरुषों का नियति के वश में होना सिद्ध नहीं होता और नियति की सिद्धि पूर्वोक्त रीति से होना सम्भव नहीं है अतः क्रियावादी और अक्रियावादी को नियति के अधीन कहना असङ्गत समझना चाहिये।
प्राणी अपने किये हुए कर्मों का फल नहीं भोगता है यह कथन तो सर्वथा असंगत हैं क्योंकि - ऐसा होने पर तो जगत् की विचित्रता हो ही नहीं सकती। प्राणिवर्ग अपने अपने कर्मों की भिन्नता के कारण ही भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं परन्तु कर्मों का फल न मानने पर यह नहीं हो सकता है। नियति भी नियत स्वभाव वाली होने के कारण विचित्र जगत् की उत्पत्ति नहीं कर सकती है। येदि वह विचित्र जगत् की उत्पत्ति करे तो वह विचित्र स्वभाववाली सिद्ध होगी एक स्वभाववाली नहीं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org