Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १
विवेगमागच्छंति - विवेक को प्राप्त होते हैं, विहाणमागच्छंति नाना प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं, णाणापण्णा - भिन्न भिन्न बुद्धि वाले, णाणाच्छंदा- भिन्न-भिन्न अभिप्राय वाले, णाणासीलानाना शील, णाणारुई - नाना रुचि, णाणाअज्झवसाणसंजुत्ता-नाना अध्यवसायों से संयुक्त, पहीण पुव्वसंजोगा- पूर्व संयोगों को छोड़े हुए ।
भावार्थ- तीसरे पुरुष के वर्णन के पश्चात् चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है । चौथा पुरुष... नियतिवादी कहलाता है । इसका कारण यह है कि यह समस्त पदार्थों का कारण नियति को मानता है । जो बात अवश्य होने वाली है उसे नियति या होनहार कहते हैं वही सुख दुःख, हानि लाभ और जीवन मरण आदि का कारण है यह नियतिवादियों का मन्तव्य है । इनका यह पद्य इसी अर्थ को स्पष्ट करता है -
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" प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः,
सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा ।
भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने,
नाऽभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥" अर्थात् नियि प्रभाव से भला या बुरा जो फल मनुष्य को प्राप्त होना निश्चित है वह अवश्य उसको प्राप्त होता है । मनुष्य चाहे कितना ही प्रयत्न करे परन्तु जो होनहार नहीं है वह नहीं होता है और जो होनहार है वह बिना हुए नहीं रहता है ।
जब हम यह देखते हैं कि- बहुत से मनुष्य अपने अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए समान रूप से प्रयत्न करते हैं परन्तु किसी के कार्य की सिद्धि होती है और किसी की नहीं होती है तब यह . निःसन्देह मानना पड़ता है कि मनुष्य के कार्य की सिद्धि या असिद्धि नियति के हाथ में है, प्रयत्न आदि
वश नहीं है। अतः नियति को छोड़ कर काल ईश्वर तथा अपने कर्म आदि को सुख दुःख आदि. का कारण मानना अज्ञान है परन्तु अज्ञानी जीव इस बात को समझते नहीं हैं उन्हें जब दुःख या सुख उत्पन्न होता है तब वे कहते हैं कि - यह दुःख या सुख मेरे द्वारा किये हुए कर्म के प्रभाव से मुझ को प्राप्त हो रहा है तथा जब दूसरे को सुख या दुःख उत्पन्न होता है उस समय भी वे यही मानते हैं कि ये दूसरे के कर्म के प्रभाव से प्राप्त हुए हैं। वस्तुतः यह मन्तव्य युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि सब कुछ नियति से ही प्राणी को प्राप्त होता है। कर्म, ईश्वर या काल आदि के प्रभाव से नहीं। इस कारण विवेकी नियतिवादी पुरुष सुख दुःख आदि की प्राप्ति होने पर यह मानता है कि- मैं जो सुख या दुःख को प्राप्त करता हूँ यह मेरे द्वारा किये हुए कर्मों का फल नहीं है तथा दूसरा जो सुख दुःख आदि को प्राप्त करता है वह भी उसके द्वारा किए हुए कर्मों का फल नहीं है किन्तु नियति इसका कारण है । इस जगत् में दो प्रकार के पुरुष पाये जाते हैं, एक क्रियावादी और दूसरा अक्रियावादी। ये दोनों ही नियति के अधीन हैं, स्वतन्त्र नहीं है। अतः नियति की प्रेरणा से क्रियावादी क्रिया का समर्थन करता है और
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