Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
*********** वसिस्सामो; कस्स णं तं हेउं ? जहा पुव्वं तहा अवरं, जहा अवरं तहा पुव्वं, अंजू एए अणुवरया अणुवट्ठिया पुणरवि तारिसगा चेव ।।
जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, दुहओ पावाइं कुव्वंति-इइ संखाए दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाणो इति भिक्खू रीएज्जा।
. से बेमि पाईणं वा ६ जाव एवं से परिण्णायकम्मे, एवं से ववेय-कम्मे, एवं से विअंत-कारए भवती-ति मक्खायं ॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - गारत्था - गृहस्थ, सारंभा - आरंभ सहित, सपरिग्गहा - परिग्रह सहित, अणारंभे- आरंभ रहित, अपरिग्गहे - परिग्रह रहित, णिस्साए - निश्रा-आश्रय में, पुव्वं - पहले, अवरंपीछे, अणुवरया - अनुपरत-दोषों से विरत नहीं, अणुवट्ठिया - अनुपस्थित-धर्म में उपस्थित नहीं, अदिस्समाणो - अदृश्यमान-दोषों से रहित, रीएजा - संयम में प्रवृत्ति करे, परिण्णायकम्मे - परिज्ञातकर्मा-कर्म के रहस्य को जानने वाला, ववेयकम्मे - व्यपेतकर्मा-कर्म बंधन से रहित, विअंतकारएव्यंतकार-कर्मों का अंत करने वाला ।
भावार्थ - गृहस्थ लोग सावध अनुष्ठान करते हैं और धन, धान्य, सोना चाँदी आदि अचित्त तथा दासी दास और हाथी घोड़ा ऊंट बैल आदि सचित्त परिग्रह रखते हैं यह प्रत्यक्ष है तथा शाक्य आदि भिक्षु श्रमण तथा ब्राह्मण आदि भी सावध अनुष्ठान करते हैं और सचित्त तथा अचित्त दोनों ही प्रकार के परिग्रह रखते हैं अतः इन लोगों के साथ रह कर मनुष्य सावद्य अनुष्ठान रहित तथा परिग्रहवर्जित नहीं हो सकता है। अतः विवेकी पुरुष इनके संसर्ग को छोड़ कर निरवद्य अनुष्ठान करते हैं तथा परिग्रह को वर्जित करते हैं । यद्यपि शाक्य भिक्षु आदि नाम मात्र से दीक्षाधारी होते हैं तथापि वे दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व जैसे सावध अनुष्ठान करते हैं और परिग्रह रखते हैं वैसे ही दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भी सावध अनुष्ठान करते हैं और परिग्रह रखते हैं अतः इनकी पूर्व तथा उत्तर अवस्था में कोई भेद नहीं है। गृहस्थ तथा शाक्य भिक्षु आदि त्रस और स्थावर प्राणियों का विघातक व्यापार करते हैं यह प्रत्यक्ष है अतः इनमें रहकर निरवद्य वृत्ति का पालन एवं परिग्रह का त्याग सम्भव नहीं है अतः साधुजन इनका त्याग कर देते हैं । यद्यपि इन्हें छोड़े बिना निरवद्य वृत्ति का पालन और परिग्रह का त्याग सम्भव नहीं है तथापि निरवद्य वृत्ति के पालनार्थ इनका आश्रय लेना वर्जित नहीं किया जा सकता है अतः साधु इन्हें त्याग कर भी निरवद्य वृत्ति के पालनार्थ इनका आश्रय लेते हैं । आशय यह है कि संयम के आधार भूत शरीर के रक्षार्थ साधु इनके द्वारा दिये हुए भिक्षान्न को प्राप्त कर अपना निर्वाह करते हैं क्योंकि ऐसा किये बिना उनकी निरवद्य वृत्ति का निर्वाह नहीं हो सकता है अतः वे इनके आश्रय का त्याग नहीं करते हैं । इस प्रकार जो पुरुष गृहस्थ आदि के द्वारा दिये हुए भिक्षान्न मात्र से अपना निर्वाह करते हुए शुद्ध
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