Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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क्रिया स्थान नामक दूसरा अध्ययन सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु किरिया-ठाणे णामझयणे पण्णत्ते, तस्स णं अय-मढे ॥१॥
इह खलु संजूहेणं दुवे ठाणे एव-माहिजंति, तं जहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव; उवसंते चेव अणुवसंते चेव ॥२॥
तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अहम्म-पक्खस्स विभंगे तस्स णं अय-मटे पण्णते । इह खलु पाईणं वा ६ संतेगइया मणुस्सा भवंति; तं जहा-आरिया वेगे, अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे, णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे, हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे, दुव्वण्णा वेगे, सुरूवा वेगे, दुरूवा वेगे । तेसिं च णं इमं एयारूवं दण्ड-समादाणं संपेहाए, तं जहा-णेरइएसु वा, तिरिक्ख-जोणिएसु वा, मणुस्सेसु वा, देवेसु वा जेयावण्णे तहप्पंगारा पाणा विण्णू वेयणं वेयंति ।
तेसि पि य णं इमाइं तेरस किरिया-ठाणाई भवंतीतिमक्खायं तं जहा - १ अट्ठादंडे, २ अणट्ठादंडे ३ हिंसादंडे, ४ अकम्हादंडे, ५ दिट्ठि-विपरियासियादंडे, ६ मोसवत्तिए, ७ अदिण्णादाण-वत्तिए, ८ अज्झत्थ-वत्तिए, ९ माण-वत्तिए, १० मित्त-दोस-वत्तिए, ११ माया-वत्तिए, १२ लोभवत्तिए, १३ इरियावहिए ॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - संजूहेणं - सामान्य से-संक्षेप में, अणुवसंते - अनुपशांत, दंडसमादाणं - दंड समादान-हिंसात्मक आचरण, किरियाठाणाई - क्रिया स्थान, अकम्हादंडे - अकस्मात् दण्ड, दिट्ठिविपरियासियादंडे- दृष्टि विपर्यासिका दंड, मोसवत्तिए- मृषा प्रत्ययिक, अदिण्णा-दाणवत्तिए - अदत्तादान प्रत्ययिक, अज्झत्थवत्तिए - अध्यात्म प्रत्ययिक, इरियावहिए - ईर्यापथिक।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि - मैं तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के उपदेशानुसार क्रियास्थान नामक अध्ययन का उपदेश करता हूँ - इस जगत् में कोई प्राणी धर्म स्थान में निवास करते हैं और कोई अधर्म स्थान में रहते हैं । कोई भी क्रियावान् प्राणी इन दोनों स्थानों से अलग नहीं हैं इनमें पहला स्थान उपशान्त और दूसरा अनुपशांत-शान्तिरहित है । जिनका पूर्वकृत शुभ कर्म उदय को प्राप्त है वे शक्तिशाली पुरुष उपशान्त धर्मस्थान में वर्तमान रहते हैं और उनसे भिन्न प्राणी अनुपशान्त अधर्मस्थान में निवास करते हैं । इस जगत् में सुख दुःख का ज्ञान और अनुभव करने वाले
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