Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
प्राणी मारा गया तथा किसान अपने खेत में उगे हुए धान्य के अंकुर के साथ दूसरा जो घास उग गया था उसको काटने के लिए दतौली आदि शस्त्र चलाया उससे घास न कट कर धान्य का पौधा ही कट गया। यह अकस्मात् दण्ड कहलाता है।
अहावरे पंचमे दंड-समादाणे दिट्टि - विपरि-यासियादंड वत्तिए त्ति आहिज्जइ । से जहा णामए केइ पुरिसे माईहिं वा पिईहिं वा, भाईहिं वा, भगिणीहिं वा, भज्जाहिं वा, पुत्तेहिं वा, धूयाहिं वा, सुण्हाहिं वा, सद्धिं संवसमाणे मित्तं अमित्त मेव मण्णमाणे मित्ते हय-पुव्वे भवइ दिट्ठि विपरियासिया दंडे । से जहा णामए केइ पुरिसे गामघायंसि वा, णगर - घायंसि वा, खेड-घायंसि कब्बड घायंसि वा, मडंब घायंसि वा दोणमुहघायंसि वा, पट्टणघायंसि वा, आसम - घायंसि वा सण्णिवेस घायंसि वा, णिग्गम-घायंसि वा, रायहाणि - घायंसि वा, अत्तेणं तेण-मिति मण्णमाणे अतेणे हयपुव्वे भवइ दिट्टि - विपरियासिया - दंडे । एवं खलु तस्स - तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । पंचमे दंड-समादाणे दिट्ठि-विपरियासिया - दंड वत्तिए त्ति आहिए ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - दिट्ठि विपरियासियादंडवत्तिए - दृष्टि विपर्यासिका दंड प्रत्ययिक, संवसमाणे रहता हुआ, अमित्तं अमित्र, खेडघायंसि - खेट घात के समय, दोणमुहघायंसि अचोर (चोर से भिन्न व्यक्ति)
द्रोणमुख के घात के समय, अतेणं
भावार्थ - अन्य प्राणी के जो पुरुष मित्र को शत्रु के भ्रम क्रियास्थान का उदाहरण है ।। २१ ॥
विवेचन - मित्र को शत्रु और दण्डनीय को अदण्डनीय समझ लेना दृष्टिविपर्यास है।
अहावरे छुट्टे किरियट्ठाणे मोसा - वत्तिए त्ति आहिज्जइ । से जहा णामए केइ पुरिसे आय हेउं वा, गाइ-हेडं वा, अगार- हेउं वा, परिवार हेउं वा, सयमेव मुसं वयइ, अण्णेण वि मुसं वाएइ, मुसं वयंतं पि अण्णं समणुजाणइ; एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । छट्ठे किरिय-ट्ठाणे मोसा - वत्तिए त्ति आहिए ।। २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - मोसावत्तिए - मृषा प्रत्ययिक, सयमेव स्वयं मुसं मृषा, वयइ - बोलता है वाइ- बोलाता है, वयंतं बोलते हुए को, समणुजाणइ - अच्छा जानता है ।
भावार्थ - जो पुरुष अपने ज्ञातिवर्ग, घर तथा परिवार आदि के लिये स्वयं झूठ बोलता है अथवा दूसरे से झूठ बोलाता है तथा झूठ बोलते हुए को अच्छा मानता है उसको मिथ्या भाषण से उत्पन्न सावद्य कर्म का बन्ध होता है यही छट्ठे क्रियास्थान का स्वरूप है ।
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भ्रम से अन्य प्राणी को दंड देना दृष्टिविपर्य्यास दण्ड कहलाता है । तथा साहुकार को चीर के भ्रम से दण्ड देता है वह उस पाँचवें
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