Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १
ईश्वर या परमात्मा कहलाता है उस ईश्वर की कृपा से जीव स्वर्ग भोगता है और उसके कोप से नरक भोगता है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति वाला है वह अपनी इच्छा से सुख नहीं प्राप्त कर सकता तथा अपने दुःख को भी दूर नहीं कर सकता है किन्तु ईश्वर की आज्ञा से उसे सुख दुःख की प्राप्ति होती है इस प्रकार ईश्वर की कल्पना करने वाले कहते हैं -
'अज्ञो जन्तुरनीशोऽय, मात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा ॥'
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अर्थात् - इस अज्ञानी जीव में यह शक्ति नहीं है कि यह सुख की प्राप्ति और दुःख का परिहार स्वयं कर सके किन्तु ईश्वर की प्रेरणा से यह स्वर्ग या नरक में जाता है । इस प्रकार ईश्वरवादी जैसे समस्त जगत् का कारण ईश्वर को मानता है इसी तरह आत्माद्वैतवादी एक आत्मा को समस्त विश्व का कारण कहता है । जैसा कि
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"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥"
अर्थात् - एक ही आत्मा समस्त प्राणियों में स्थित है । वह एक होता हुआ भी जल में चन्द्रमा के समान भिन्न भिन्न प्रतीत होता है । तथा -
"पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम्"
अर्थात् - इस जगत् में जो हो चुका है और जो होने वाला है वह सब आत्मा ही है । जैसे मिट्टी के द्वारा बने हुए सभी पात्र मृण्मय (मिट्टी रूप ) हैं तथा तन्तु (डोरा) के द्वारा बने हुए सभी वस्त्र तन्तुमय है इसी तरह समस्त विश्व आत्मा के द्वारा निर्मित होने के कारण आत्ममय (आत्म स्वरूप ) है । समस्त पदार्थ आत्मा के द्वारा निर्मित होने के कारण आत्मा में ही निवास करते हैं। वे उससे अलग नहीं किये जा सकते हैं, जैसे शरीर में उत्पन्न फोड़ा शरीर में ही स्थित रहता है तथा मन में उत्पन्न दुःख मन में ही विद्यमान रहता है तथा पृथिवी से उत्पन्न वल्मीक (उदई का ढेर) पृथिवी पर ही रहता है एवं जल से उत्पन्न बुदबुद जल में ही रहता है परन्तु शरीर को छोड़कर फोड़ा, मन को छोड़ कर दुःख, पृथिवी को छोड़ कर वल्मीक और जल को छोड़ कर बुदबुद अलग नहीं रह सकता है। इसी तरह समस्त पदार्थ आत्मा को छोड़ कर अलग नहीं रह सकते हैं किन्तु वे आत्मा में ही वृद्धि (बढोतरी) और हास (हानि) आदि को प्राप्त करते रहते हैं यह आत्माद्वैतवादी का सिद्धान्त है। ईश्वर कारणवादी और आत्माद्वैतवादी ये दोनों ही तीसरे पुरुष में ग्रहण किये गये हैं। ये दोनों ही कहते हैं कि - आचाराङ्ग आदि जो श्रमण निर्ग्रन्थों का द्वादशाङ्ग शास्त्र है वह मिथ्या है क्योंकि वह ईश्वर के द्वारा किया हुआ नहीं हैं किन्तु किसी साधारण व्यक्ति के द्वारा निर्मित और विपरीत अर्थ का बोधक है। इस प्रकार आर्हत् दर्शन की निन्दा करने वाले ईश्वरकारणवादी और आत्माद्वैतवादी अपने अपने मतों में अत्यन्त आग्रह रखते हुए अपने सिद्धान्तों की शिक्षा शिष्यों को देते हैं तथा द्रव्योपार्जनार्थ नाना प्रकार के
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