Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १
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स्वयं, आइयंति - परिग्रह स्वीकार करते हैं, रागदोसवसट्टा- राग द्वेष के वशवर्ती ( वशीभूत), समुच्छेदेति - मुक्त कर सकते हैं, आरियं मग्गं - आर्य मार्ग को, असंपत्ता प्राप्त नहीं होते हुए, विसण्णा-निमग्ग-आसक्त, तज्जीवतच्छरीरए - तज्जीवतच्छरीरवादी ।
भावार्थ - श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि इस मनुष्य लोक के पूर्व आदि दिशाओं में नाना प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं। वे एक प्रकार के नहीं होते। कोई पुरुष आर्यधर्म के अनुयायी होते हैं और कोई अनार्य होते हैं। जो धर्म सब प्रकार के बुरे धर्मों से रहित है उसे आर्य धर्म कहते हैं और जो इससे विपरीत है उसे अनार्य धर्म कहते हैं। इस भारत वर्ष के साढ़े पचीस जनपद (देश) में उत्पन्न पुरुष आर्य धर्म के अनुयायी होते हैं और इससे बाहर निवास करने वाले मनुष्य अनार्य होते हैं। इन आर्य पुरुषों में कोई इक्ष्वाकु आदि उच्च गोत्र में उत्पन्न और कोई नीच गोत्र में उत्पन्न होते हैं । कोई लम्बे शरीर वाले होते हैं और कोई वामन, कुबड़े आदि होते हैं। किसी का शरीर सोने की तरह सुन्दर होता है और किसी का काला तथा रूक्ष होता है । कोई सुन्दर अंगोपाङ्ग से युक्त मनोहर होता है और कोई कुरूप होता है। इन पुरुषों में जो उच्च गोत्र वाले तथा उत्तम शरीर आदि गुणों से युक्त होते हैं उनमें कोई पुरुष अपने पूर्व पुण्य के उदय से मनुष्यों का राजा होता है। उसके गुण इस प्रकार जानने चाहिये वह राजा, हिमवान्, मलय, मन्दराचल तथा महेन्द्र पर्वत के समान बलवान् अथवा धनवान् होता है। वह स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र के भय रहित होता है। एवं वह उववाई सूत्र में हुए राजा के समस्त गुणों से सुशोभित होता है ।
उस राजा की एक परिषद् होती है उसमें आगे कहे जाने वाले लोग सभासद् होते हैं। उग्र जाति वाले तथा उनके पुत्र एवं भोग जाति वाले और उनके पुत्र, तथा सेनापति और उनके पुत्र, सेठ, . साहुकार, राजमन्त्री तथा उनके पुत्र आदि उसके परिषद् के सभासद् होते हैं ।
इनमें कोई पुरुष धर्म में रुचि रखने वाला होता है । ऐसे पुरुष को जानकर अपने धर्म की शिक्षा देने के लिये अन्यदर्शनी लोग उसके पास जाते हैं। वे उस धर्मश्रद्धालु पुरुष के निकट जाकर कहते हैं कि - हे राजन् ! मेरा ही धर्म सब कल्याणों का कारणरूप सत्यधर्म है दूसरे सब अनर्थ हैं। इस प्रकार वे अपना सिद्धान्त सुना कर उस धर्मश्रद्धालु राजा आदि को अपने धर्म में दृढ़ करते हैं। इन अन्यतीर्थियों में पहला तज्जीवतच्छरीरवादी है । यह शरीर से भिन्न आत्मा को नहीं मानता है । इसका सिद्धान्त है कि- शरीर ही आत्मा है । पादतल से ऊपर और केशाग्र मस्तक से नीचे तथा तिरच्छा चमड़े तक का जो शरीर है वही जीव है अतः जिसने शरीर को प्राप्त किया है उसने जीव को भी प्राप्त किया है अतः शरीर से जुदा आत्मा को मान कर उसकी प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के दुःखों को सहन करने की आवश्यकता नहीं है। सब लोग यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि- जब तक यह पांच भूतों का बना हुआ शरीर जीता रहता है तभी तक यह जीव भी जीता रहता है परन्तु शरीर के नष्ट होने पर उसके साथ ही जीव भी नष्ट हो जाता है। मरने के पश्चात् उस मृत व्यक्ति को जलाने के लिए जो लोग श्मशान में ले
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