Book Title: Supasnahachariyam Part 01
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown
View full book text
________________
सुपासनाह-चरिअम्मि
लालिज्जतो महणण्हाणाइपराहि पंचधाईहिं । मन्ने पियरमणोर ईसाइव सोवि वड्ढेइ || ३१२ || तस्य वयणंतरवासिणीए वाणीए मुत्तियलयन्न । जंपंतस्स सहेलं सुहुमा दसणावली सहइ ||३१३॥ कुरलकुरलीहिं कलिओ तमालदलसामलो अइसणिद्धो म उलिकमले पहोलइ चिहुरचओ कोमलो तस्स ।। ३१४ अह सो जच्छिकलाविलाससुहगहियविग्गहोवचओ। जाओ य अट्ठवच्छरपरिवाओ जणियजणय सुहो ।। ३१५/ तो विजागरणखम एसो इय निच्छिउं नरिदेण । उवणीओ विहिपुब्वं लेहायरियस्स पढणत्थं ।। ३१६ ॥ असरिसबुद्धिसमिद्धीए सुगुरुभत्तीर उज्जमेणं च । सो थोवदिणेहिं समत्थसत्यपरमत्थविऊ जाओ ।। ३१७॥ निययपयारपूयं कुणमाणो महियलं समणुपत्तो । सो वर्जुव्वणलच्छि सव्वंगम कित्तिमाहरणं ॥ ३९८ ॥ महुमा रोमलया कवोलपालीस से समुल्लसिया | मुहकमलपरिमलुग्गारलो ललीणालिमालव्व ॥३१९ कंचणसिलाविसालं वच्छयलं पिहुसमुन्नयं तस्स | अंतोफुरंतगुणगणपणुल्लियं पित्र समुव्वहइ || ३२०|| अह सो सयंवरागयपहाणपत्थिवसुयाओऽगाओ । परिणाविओ नरिंदेण नंदिसेणो विभूईए || ३२१ | कइयावि फारफेणानिलाणणं दमइ दुद्दमतुरंगं । गुरुवेयविद्वत्तं नियजसंव लोयाण दरिसंतं ॥ ३२२ ॥ बहुहावभावलड कइयावि विलासिणीण सविलासं । लासविहिं स पलोयइ गेयरसायन्नणसयण्हो ।। ३२३।। कररुहकिरणमिसेणं दालिद्दजलंजलिव वियरंतो । कइयावि कुणइ मग्गणजणाण सकरेण दाणविहि || ३२४ | तालाण वाहिं अंतो पुण नियगुणाण मालाए । कुणइ सविभूसणाई कयावि सुकईण हिययाई || ३२५ । लाल्यमानो मर्दनस्नानादिपराभिः पञ्चधात्रीभिः । मन्ये पितृमनोरथेर्ष्ययेव सोपि प्रवर्धते ॥ ३९२ ॥ तस्य च वदनान्तरवासिन्या वाण्या मौक्तिकलतेव । जल्पतः सहेलं सूक्ष्मा दशनावली राजते ॥ ३१३॥ कुरलकुरलीभिः कलितस्तमालदलश्यामलोडतिस्निग्धः । मौलिकमले प्रघूर्णते चिहुरचयः कोमलस्तस्य ॥३१४॥ अथ स यथेच्छक्रीडाविलाससुखगृहीतविग्रहोपचयः । जातश्चाष्टवत्सरपर्यायो जनितजनकसुखः ||३१५।। ततो विद्याग्रहणक्षम एष इति निश्चित्य नरेन्द्रेण । उपनीतो विधिपूर्व लेखाचार्यस्य पठनार्थम् ||३१६ ॥ असदृशबुद्धिसमृद्धया सुगुरुभक्त्योद्यमेन च । स स्तोकदिनैः समस्तशास्त्रपरमार्थविज्जातः ||३१७|| निजपदप्रचारपूतं कुर्वन् महीतलं समनुप्राप्तः । स नवयौवनलक्ष्मीं सर्वाङ्गीणमकृत्त्रिमाभरणम् ।। २१८ ।। मृदुसूक्ष्मा रोमलता कपोलपाल्यास्तस्य समुल्लसिता । मुखकमलपरिमलोद्गारलाललीनालिमालेव ॥ ३१९ ॥ काञ्चनशिलाविशालं वक्षस्तलं पृथुसमुन्नतं तस्य । अन्तः स्फुरद्गुणगणप्रणोदितमिव समुद्रहति ॥ ३२० ॥ अथ स स्वयंवरागतप्रधानपार्थिवसुता अनेकाः । परिणायितो नरेन्द्रेण नन्दिषेणो विभूत्या || ३२१|| कदाचिदपि स्फारफेनाविलाननं दाम्यति दुर्दमतुरङ्गम् । गुरुवेगार्जितं निजयश इव लोकान् दर्शयन्तम् ॥ ३२२ बहुहावभावरम्यं कदाचिदपि विलासिनीनां सविलासम् । लास्यविधिं स प्रलोकते गेयरसाकर्णनसतृष्णः ॥ ३२३ | कररुह किरणमिषेण दारिद्र्यजलाञ्जलिमिव वितरन् । कदाचिदपि करोति मार्गणजनानां स्वकरेण दानविधिम् ॥ ३२६ मुक्ताफलानां बहिरन्तः पुनर्निजगुणानां मालया । करोति सविभूषणानि कदापि सुकवीनां हृदयानि ॥ ३२५ ॥
१ क. ग. नव । २ क. जोवण, ख. जीव्वण ।
२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282