Book Title: Supasnahachariyam Part 01
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 35
________________ २८ सुपासनाह-चरिअम्मितई सोमसमे दिटे रहसुल्लसियस्स सायरस्स महं । पुलयभरोमणिनिवहुव्व सहइ बाहिं विणिक्खित्तो॥३६८ कह पहु ! सिवसिरिसंगो मह दुलहो कहसुसंपर्य होही । वररायहंसकप्पे मणकमले तइ सणाहम्मि ?॥३६९ किंपुण सिवसिरिसंगेवि माणसं मज्झ संपयं विमुहं । तुहगुणगणाणुरत्तं सयावि सरणं तुम महइ ॥३७० इय जिणपहुणो काउं संथवणं नंदिसेणमहिनाहो। भूमंडलमिलियनिडालमंडलो कुणइ पणिवाय॥३७१। करजुयलमिलियकोसो वियसियमुहकमलजायसंतोस्रो। ज़िणवयणलीणनयणो जहठाण तयणु उवविठ्ठो । दसणकिरणावलीहिं टिविडिक्कतोव्व दिसिवहुमुहाई। सिरिसिरिनंदणजिणपुंगवोविधम्म कहइ एवं॥३७३ भो भो भवभमिराणं अंतररिउगसियसुद्धबुद्धीणं । दुक्कम्मगलच्छणदुत्थियाण जीवाण सयकालं ॥३७४॥ पायं सव्वंपिहु कहवि किंपि संपडइन उण मणुयत्तं । चिंतारयणव समीहियत्थसंपायणपवीणं ।।३७५।। कहकहवि दिव्ववसओलद्धस्सविमणुयजम्मरयणस्स।जिणवरवयणनिसामणनिसाणसंगो हवइ दुलहो।३७६ न हु देइ विणा इमिणा मलमलिणमिमं तिरोहियसरूवं । सुगुरुकलायपसंसारहियं जीवाण परमत्थं ॥३७७ ता नरवरिंद ! तुमए समग्गसामग्गियाए संपन्नं । नरभवरयणं पत्तं परमत्थं गिण्हसु इमेणं ॥३७८॥ इय सिरिनंदणजिणपहुपणीयसुवियड्ढदेसणं सोउं । सिरिनदिसेणराया तयभिमुह जंपए एवं ॥३७९॥ जयपहुकुणसु पसायं नियदिक्खादाणओ मह इयाणिं। जइ अत्थि जोग्गया जिणवरेण तोपियं एवं॥३८० नरवर चितारयणस्स जहमिह महग्घस्सकणयमेव पयं। तह दिक्खारयणस्सवि ठाणं तम्हारिसा चेव ॥८१ प्रभो ! वञ्चितोऽस्मि तदहमेतावत्कालं हि मोहराजेन । यत्तव पादकमलयुगे न खलु रतो मम मनोभ्रमरः ॥३६॥ त्वयि सोमसमे दृष्टे रभसोल्लसितस्य सागरस्य मम । पुलकभरो मणिनिवह इव राजते बहिर्विनिष्क्रान्तः॥३६८ कथं प्रभो! शिवश्रीसङ्गो मम दुर्लभः कथय सांप्रत भविष्यति । वरराजहंसकल्पे मनःकमले त्वया सनाथे ? ॥३६९ किन्तु शिवश्रीसङ्गेऽपि मानसं मम सांप्रतं विमुखम् । त्वद्गुणगणानुरक्तं सदापि शरणं त्वां काङ्क्षति ॥३७०॥ इति जिनप्रभोः कृत्वा संस्तवनं नन्दिषणमहीनाथः । भूमण्डलमिलितललाटमण्डल: करोति प्रणिपातम् ॥३७१। करयुगलमिलितकोशो विकसितमुखकमलजातसंतोषः । जिनवदनलीननयंनो यथास्थानं तदनूपविष्टः॥३७२।। दशनकिरणावलीभिर्मण्डयन्निव दिग्वधूमुखानि । श्रीश्रीनन्दनजिनपुङ्गवोऽपि धर्म कथयत्येवम् ।।३७३॥ भो भो भवभ्रमणशीलानामान्तररिपुग्रसितशुद्धबुद्धीनाम् । दुष्कर्मकलक्षणदुःस्थितानां जीवानां सदाकालम्॥३७४ प्रायः सर्वमपि हि कथमपि किमपि संपतति न पुनर्मनुजत्वम् । चिन्तारत्नमिव समीहितार्थसंपादनप्रवीणम् ॥३७५। कथंकथमपि दैववशतो लब्धस्यापि मनुजजन्मरत्नस्य । जिनवरवचननिशमननिशाणसङ्गो भवति दुर्लभः ॥३७६ नहि ददाति विनाऽनेन मलमलिनमिदं तिरोहितस्वरूपम् । सुगुरुमणिकारप्रशंसारहित जीवेभ्यः परमार्थम् ॥३७५ तस्माद् नरवरेन्द्र ! त्वया समग्रसामग्रिकया संपन्नम् । नरभवरत्नं प्राप्तं परमार्थ गृहाणानेन ॥३७८॥ इति श्रीनन्दनजिनप्रभुप्रणीतसुविदग्धदेशनां श्रुत्वा । श्रीनन्दिषेणराजस्तदभिमुखं जल्पत्येवम् ॥३७९॥ जगत्प्रभो ! कुरुष्व प्रसादं निजदीक्षादानतो ममेदानीम् । यद्यस्ति योग्यता, जिनवरेण ततो जल्पितमेवम् ।।३८ १ग, हथाम । २ ख. ग. एयं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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