Book Title: Supasnahachariyam Part 01
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 45
________________ ३८ सुपासनाह चरिअम्मि आयन्निऊणमेवं हरिसेण विसज्जिउं नमसित्ता । नरवइणा मुणिनाहो गओ य हियइच्छियं ठाणं ॥ ९९ ॥ तेसिं च सिद्धपुत्ताण दावियं पारितोसियं दविणं । आसतपुरिससंतइदा लिदविमद्दसंजणयं ॥ १०० ॥ तो देवीभवणं गंतूणं साहियं महीवइणा । चउदससुमिणाण फलं जह कहियं तेहि सविसेस ॥ १०१ ॥ सोऊण सुमिणविवरणमुल्लसियासमपमोयजुत्ताए । सुररमणिसरिसवंतविब्भमाए तओ तीसे ॥ १०२ ॥ तित्थयरपभावेण दूरयरविलीणरोयनियराए । परिवढि उमारो गन्भो सह देहकतीए ॥१०३॥ अह सोहि पत्ता देवी गव्भप्पभावओ अहियं । खीरोयजल हिवेलव्य पवरमुत्ताहलसणाहा || १०४ || अंतस्थ डिविवियउरगमंत नवतरणिकिरणविच्छुरिया । तियसायलनिम्मलकणयसाणुभित्तिव्व अइरुइ ।। १०५ अभंतर पाउन्भुयअसमस सिमंडला नहसिरिव्व । फलिहधरणीव अंतरनिहित्तवर रयणपव्भारा || १०६ ॥ सुघणपयोहर मंडल परिमंडियगयण विमलवच्छयला । उल्लसियालायावलयहासिरी पाउससिरिव्व ।। १०७ ।। इय गभट्ठियजिणवरपभाववर्द्धत कंतसव्वंगा । रेहइ नवकप्पद मलइयच्च मणोहरा • देवी ॥ १०८ ॥ अह सुपस्स हे इंद| सेण धणवइष्पमुहा । मुंचति जक्खनियरा मणिरयणसुवन्नदविणभरं ॥ १०९ ॥ बहुविहणुन भोगंग संचयं तह पसत्थवत्थाणि । विविहाभरणाणि य किरणजालक लियाणि विकिरंति ।। ११० ।। अवणिति वाउदेवी कयचरं तत्थ तम्मि समयम्मि । गंधोययधाराधोरणीए वरिसंति तह मेहा ॥ १११ ॥ सव्वावि रिउसिरीओ मुंचति समंतओ कुसुमबुद्धिं । आयरिसं दंसंति य जोइसियाणं पुरंधीओ ॥ ११२ ॥ किं बहुना तस्माद्भविष्यति सप्तमतीर्थङ्करः सुतस्तव । धर्मवरचक्रवर्ती लोकालोकप्रकाशकरः ॥ ९८ ॥ आकण्यैवं हर्षेण विसृज्य नमस्यित्वा । नरपतिना मुनिनाथो गतश्च हृदयेप्सितं स्थानम् ॥ ९९|| तेभ्यश्च सिद्धपुत्रेभ्यो दापितं पारितोषिकं द्रविणम् । आसप्तपुरुषसंततिदारिद्र्यविमर्दसंजनकम् ॥१००॥ इतो देवीभवनं गत्वा कथितं महीपतिना । चतुर्दशस्वप्नानां फलं यथा कथितं तैः सविशेषम् ॥१०१॥ श्रुत्वा स्वप्नविवरणमुल्लसितासमप्रमोदयुक्तायाः । सुररमणीसदृशवर्धमानविभ्रमायास्ततस्तस्याः ॥१०२॥ तीर्थकरप्रभावेण दूरतरविलीनरोगनिकरायाः । परिवर्धितुमारब्धो गर्भः सह देहकान्त्या ॥ १०३ ॥ 'अथ शोभितुं प्रवृत्ता देवी गर्भप्रभावतोऽधिकम् । क्षीरोदजलधिवेलेव प्रवरमुक्ताफलसनाथा ॥ १०४ ॥ अन्तःप्रतिबिम्बितोद्गच्छन्नवतरणिकिरणविच्छुरिता । त्रिदशाचलनिर्मलकनकसानुभित्तिरिवातिरुचिरा ॥ १०६॥ आभ्यन्तरप्रादुर्भूतासमशशिमण्डला नमः श्रीरिव । स्फटिकवरणिरिवान्तर्निहितवररत्नप्राग्भारा ॥ १०६॥ सुघनपयोधर मण्डलपरिमण्डितगगनविमलवक्षस्तला | उल्लसितबलाकावलयहासवती प्रावृखि ॥१०७॥ इति गर्भस्थितजिनवर प्रभाववर्धमानकान्तसर्वाङ्गा । राजते नवकल्पद्रुमलतिकेव मनोहरा देवी ॥ १०८ ॥ अथ सुप्रतिष्ठस्य गृहे इन्द्रादेशेन धनपतिप्रमुखाः । मुञ्चन्ति यक्षनिकरा मणिरत्नसुवर्ण द्रविणभरम् ॥ १०९॥ बहुविधमनोज्ञभोगाङ्गसंचयं तथा प्रशस्तवस्त्राणि । विविधाभरणानि च किरणजालकलितानि विकिरन्ति ॥ ११०॥ अपनयन्ति वायुदेव्यस्तृणाद्युत्करं तत्र तस्मिन् समये । गन्धोदकधाराघोरण्या वर्षन्ति तथा मेघाः ॥ १११ ॥ १ ग. मेयं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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