Book Title: Supasnahachariyam Part 01
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 59
________________ ५२ सुपासनाहं चरिअम्मि तह सत्थियनंदावत्तकलसपज्जंतमंगले अहं । मुयइ तओ बहुविहकुसुमनियरमाजाणुमित्तं च ॥ २८५ ॥ . तत्तो नाणामणिभत्तिचित्त दंडेण वइरमइएण | सुकडच्छुएण गंधाभिराममुक्खिवइ वरधूयं ॥ २८६ ॥ पजलंतदीविया चकवालमारत्तियं मणभिरामं । उत्तारइ वरमंगलनिलयं तह मंगलपईवं ॥ २८७ ॥ एवं च सव्वकायव्ववित्थरे वित्तयम्मि तव्वेलं । जय जय जयाइयम्मि चारणमुनिपुंगवगणेण ॥२८८॥ हरिसुत्तालनमिरसिर वियलिय कुसुमच्चियधरायलं । नञ्चिरकर मुणालवलयावलिकलयलरवरमाउलं ||२८९| उभडभरहभाव भरनच्चणवियलियहार अच्चियं । भत्तिभरेण तयणु जिणमज्जणि सयलसुरेहि नच्चियं ॥ २९० ॥ इय नचिऊण परमप्पमोयभर निव्भराए भत्तीए । भयवंतं संथोउं एवं सव्वे समारा || २९९ ॥ जय नीसेस अणोरपारभवसायरतारण ! । तिहुयणपणमियपायकमल ! निरुवमसुहकारण ! ||२९२ || मयणहरिण संहरण तरुणहरिणारिपरक्कम ! | मुणिमाणसपरिसरणहंस ! तइलोयनयक्कम ! ॥ २९३॥ सिरिवेल्लहलविसट्टकमलको मलपयकरयल ! । हिमकणहिमकर किरणसरिसजसधवलियमहीयल ! ।। २९४ ॥ सरलनयणज्य पसरतुलियवियसियपंकयदल ! | भवभयता वियहिययनवजलहरसीयल ! ||२९५ || तमभर पसर निरुं भणिकदिवसयरसमप्पह ! | सरणागयदढगूढवज्जपंजर ! हयकुप्पह ! ।। २९६ ।। उज्जोइयभुवणयल ! मोहकरिकुंभवियारण ! | जय जिणनाह ! समत्थवत्थुपरमत्थवियारण ! ॥ २९७ ॥ भारखि पवित्तु तं जिजहिं तुहुं उप्पन्नउ । सा जणणी. सकयत्थ जीए तुहुं उयरुप्पन्न ||२९८ ॥ शारदशशिकरधवलैरक्षतैरिमान् समालिखति । दर्पणभद्रासन वर्धमानश्रीवत्समत्स्यांश्च ॥ २८४ ॥ तथा स्वस्तिकनन्दावर्तकलशपर्यन्तमङ्गलान्यष्ट । मुञ्चति ततो बहुविधकुसुमनिकरमाजानुमात्रं च ॥ २८५॥ ततो नानाविधमणिभक्तिचित्रदण्डया वज्रमय्या । सुदय गन्धाभिराममुत्क्षिपति वरधूपम् ॥ २८६॥ प्रज्वलद्दीपिका चक्रवालमारात्रिकं मनोऽभिरामम् । उत्तारयति वरमङ्गलनिलयं तथा मङ्गलप्रदीपम् ॥ २८७॥ एवं च सर्वकर्तव्यविस्तारे वृत्ते तद्वेलम् । जय जय जयादिके चारणमुनिपुङ्गवगणेन ॥ २८८ ॥ हर्षोत्तालनम्रशिरोविगलितकुसुमार्चितधरातलम् । नर्तनशीलकरमृणालवल्यावालकल कलरवरमाकुलम् ॥२८९॥ उद्भटभरतभावभरनर्तनविचलितहाराचितम् । भक्तिभरेण तदनु जिनमज्जने सकल सुरैर्नर्तितम् ॥ २९० ॥ इति नर्तित्वा परमप्रमोदभरनिर्भरया भक्त्या । भगवन्तं संस्तोतुमेवं सर्वे समारब्धाः ||२९१॥ जय निःशेषानादिपारभवसागरतारण ! । त्रिभुवनप्रणतपादकमल ! निरुपम सुखकारण ! ॥ २९२ ॥ मदनहरिण संहरण तरुणहरिणारिपराक्रम ! | मुनिमानसपरिसरणहंस ! त्रैलोक्यनतक्रम ! ॥ २९३ ॥ श्रीविलासिविकसितकमलकोमलपादकरतल ! । हिमकणहिमकरकिरणसदृशयशोधवलितमहीतल ! ॥ २९४ ॥ सरलनयनयुगप्रसरतुलितविकसितपङ्कजदल ! | भवभयतापितभविकहृदय नवजलधरशीतल ! ||२९५॥ तमोभरप्रसरनिराधनैक दिवसकरसमप्रभ ! | शरणागतदृगूढवज्रपञ्जर ! हतकुपथ ! ॥२९६॥ उद्योतितभुवनतल ! मोहकरिकुम्भविदारण ! | जय जिननाथ ! समस्तवस्तुपरमार्थवितारण ! ॥ २९७॥ भारतक्षेत्रं पवित्रं तदद्य यस्मिंस्त्वमुत्पन्नः । सा जननी स्वकृतार्था यस्यास्त्वमुदरोत्पन्नः ॥ २९८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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