Book Title: Supasnahachariyam Part 01
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 48
________________ ४१ जम्माइपरथायो। भासंसारं दससुवि दिसासु परिभमउ निन्भरं देवि। सरयनिसायरहरहसियहारधवलोजसो तुज्झ ॥१३८॥ तुमएच्चिय संपत्ता रेहा मज्झम्मि पुत्तवंतीण । जीए नियउयरेणं उबूढो सत्तमजिणिदो ॥ १३९ ॥ इय सुइरं जिणजणणि नमिउं जपंति गुरुपमोएण। न हु देवि ! भाइयव्वं जं अम्हे दिसिकुमारीओ ॥१४०॥ एयस्स सयलभुवणिक्कसामिणो जिणवरस्स भत्तीए। नियअहिगारणुरूवं जम्मणमहिमं विहिस्सामो ॥१४१॥ इय अणुजाणावेउं जिणजम्मणभवणचउदिसि विहियं । जोयणमित्तं खित्तं वगयतणकहरयपत्तं ॥१४२॥ तक्खणविउविएणं संवगवाउणा समग्गंपि । दुग्गंधं अवणे जिणजणणीए अदूरम्मि ।। १४३ ॥ गायतीउ गुरुहरिसवियसियच्छीओ तत्थ चिट्ठति । एवं उड्ढदिसाओवि देवीओ इंति एयाओ ॥१४॥ मेहंकरा मेहवई सुमेहा मेहमालिणी । सुवच्छा वच्छमित्ता य वारिसेणा बलाहगा ॥१४॥ तो वेउव्वियमेहेण महियलं निहयरेणुयं काउं । सोरब्भगुणायड्ढियभमरउल पुप्फवरिसं च ॥१४६॥ . तित्थयरगुणसम्रहं अइमहरसरेण सवणसुहएण । आसन्नम्मि ठियाओ गायति गुरुप्पमोएणं ॥१४७॥ अह पोरच्छिमरुयगाओ अट्ट देवीउ दिसिकुमारीओ।नियपरियणसहियाओ एयाओ आगया तत्थ ॥१४८॥ नंदुत्तरा ये नंदा आनंदा नंदिवद्धणा । विजया य वेजयंती जयंती चापराजिया ॥१४९॥ दिणहरबिंबसरिच्छं करे करेऊण दप्पणं विमलं । पुव्वदिसि संठियाओ गायंति गुणे जिणिंदस्स ॥१५०॥ अह दाहिणरुयगाओ एवंचिय अह दिसिकुमारीओ। मुणियजिणजम्मणाओ एयाउ समागयाउ तहिं॥१५१॥ नमामास्त्रिभुवनरमणीशिरोभूषणरत्नविभ्रमे ! देवि ! । पादकमलं कोमलललिताङ्गुलिप्रवरदलकलितम् ।।१३७॥ आसंसारं दशस्वपि दिक्षु परिभ्राम्यतु निर्भरं देवि ! । शरन्निशाकरहरहसितहारधवलं यशस्तव ॥१३८॥ त्वयैव संप्राप्ता रेखा मध्ये पुत्रवतीनाम् । यया निजोदरेणोद्व्यूढः सप्तमजिनेन्द्रः ॥१३९॥ इति सुचिरं जिनजननीं नत्वा जल्पन्ति गुरुप्रमोदेन । न खलु देवि ! भेतव्यं यद् वयं दिक्कुमार्यः ॥१४०॥ एतस्य सकलभुवनैकस्वामिनो जिनवरस्य भक्त्या । निजाधिकारानुरूपं जन्ममहं विधास्यामः- ॥१४ १॥ इत्यनुज्ञाप्य जिनजन्मभवनचतुर्दिक्षु विहितम् । योजनमात्र क्षेत्रं व्यपगततृणकाष्ठरजःपत्रम् ॥१४२॥ तत्क्षणविकुर्वितेन संवर्तकवायुना समग्रमापि । दुर्गन्धमपनीय जिनजनन्या अदूरे ॥१४३॥ गायन्त्यो गुरुहर्षविकसिताक्ष्यस्तत्र तिष्ठन्ति । एवमूर्ध्वदिशोऽपि देव्य आयन्त्येताः ॥१४॥ ___ मेघङ्करा मेघवती सुमेघा मेघमालिनी । सुवत्सा वत्समात्रा च वारिषेणा बलाहका ॥१४॥ ततो विकुर्वितमेवेन महीतलं निहतरेणुकं कृत्वा । सौरभ्यगुणाकृष्टभ्रमरकुलं पुष्पवर्ष च ॥१४६॥ तीर्थकरगुणसमूहमतिमधुरस्वरेण श्रवणसुखदेन । आसन्ने स्थिता गायन्ति गुरुप्रमोदेन ॥१४७॥ अथ पौरस्त्यरुचकादष्ट देव्यो दिक्कुमार्यः । निजपरिजनसहिता एता आगतास्तत्र ॥१४८॥ __ नन्दोत्तरा च नन्दाऽऽनन्दा नन्दिवर्धना । विजया च वैजयन्ती जयन्ती चापराजिता ॥१४९॥ दिनकरबिम्बसदृशं करे कृत्वा दर्पणं विमलम् । पूर्वदिशि संस्थिता गायन्ति गुणाञ्जिनेन्द्रस्य ॥१५॥ अथ दक्षिणरुचकादेवमेवाष्ट दिक्कुमार्यः । ज्ञातजिनजन्मान एताः समागतास्तत्र ॥१५१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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