Book Title: Supasnahachariyam Part 01
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ जम्माइपत्थावो | एवं यमाणं भंगाराईण पवरवत्थूणं । पत्तेयं पत्तेयं अट्ठसहस्सं विच्चित्ता ॥ २५० ॥ गंतुं खीरसमुदं कलसे भरिऊण खीरसलिलेणं । गहियाई कमलकेरवस्यवत्तसहस्वत्ताई ॥ २५१ ॥ एवं महंतसुपसत्थतित्थसत्थाण मागहाईणं । पवरनईणं च जलं तहोसहीमट्टियाओ य ॥ २५२ ॥ उत्तरकुरुमाईसुवि कुलगिरिवक्वारनंदणवणेसु । अंतरनईदहेसु य जाणि य कुसुमोसहिफलाई || २५३ || इय सव्वं चिय तियसा तुरियं संग हिउमागया तत्थ । विणयप्पणया अच्चुयसुराहिवइणो समप्र्पति ॥ २५४ ॥ अह सो अच्चुयसको दट्ट्णमभिसेयसयल सामग्गिं । जायहरिसो य सिग्धं उहइ नियआसणाउ तओ।। २५५ ।। सामाणियसहस्सेहिं दस हिं तहा चउहिं लोगपालेहिं । तिहिं परिसाहिं सत्तहि अणियाहिवईहिं अणिएहिं ॥ २५६ ॥ तह तायत्तीसाए तायत्तीसेहिं आयरक्खाण । चत्तालीसस हस्सेहिं परिवुडो अच्चुयसुरिंदो || २५७|| तत्तोय विमलतित्थाण खीरजलहीण सलिलपुन्नेहिं । गोसीसचंदणप्पमुहसारवत्थूहिं कलिहिं ॥ २५८ ॥ विमलकमलपिहाणेहिं पवरसन्चोसहीसणाहेहिं । साहावियवे उव्त्रियकलसेहिं महप्पमाणेहिं ॥ २५९ ॥ सत्तमजिणस्स तिहुयणनिकारणबंधवस्स भत्तीए । जम्माहिसेयमहिमं अच्चुयकप्पाहिवो कुणइ ॥ २६० ॥ इत्थंतर म्मि जुगवं पलोकलसाण जिंगसिरग्गाओ । जलधोरणीओ रेहिति सिहरिसिहराओ सरियन्व | २६ १ । पहरिसपरव साहिं दिसिरमणीहिंव अहव खित्ताओ । मुत्तावलीओ सोहंति निम्मलाविरलकंतीओ || २६२॥ अवावि कुगइनिवडिरजणमुद्ध रिडंव पुन्नरज्जूओ । अह खुहियजिणजसोजलहिणोव्वं कल्लोलमालाओ २६३ काञ्चनरूप्यमयानां वरतारकमणिमयानामेवमेव । मणिकन करूप्यमयानां तथा च भौमेयकानां च ॥ २४९॥ एवं रत्नमयानां भृङ्कारादीनां प्रवरवस्तूनाम् । प्रत्येकं प्रत्येकमष्टसहस्रं विकुर्व्य ॥२५०॥ गत्वा क्षीरसमुद्रं कलशान् भृत्वा क्षीरसलिलेन । गृहीतानि कपल कैरवशतपत्रसहसूपत्राणि ॥ २५९ ॥ एवं महासुप्रशस्ततीर्थसार्थानां मागधादीनाम् । प्रवरनदीनां च जलं तथैौषधिमृत्तिकाश्च ॥ २५२ ॥ उत्तरकुर्वादिष्वपि कुलगिरिवक्षस्कारै नन्दनवनेषु । अन्तर्नदीद्रहेषु च यानि च कुसुमौपधिफलानि ॥२५३॥ इति सर्वमेव त्रिदशास्त्वरितं संगृह्या गतास्तत्र । विनयप्रणता अच्युतसुराधिपतये समर्पयन्ति ॥ २५४ ॥ अथ सोऽच्युतशको दृष्ट्वाऽभिषेकसकलसामग्रीम् । जातहर्षश्च शीघ्रमुत्तिष्ठति निजासनात् ततः ॥२५५॥ सामानिकसहसैर्दशभिस्तथा चतुर्भिर्लेौकपालैः । तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकाधिपतिभिरनीकैः ॥ २५६॥ तथा त्रयस्त्रिंशता त्रयस्त्रिंशैरात्मरक्षाणाम् । चत्वारिंशत्सहस्या परिवृतो ऽच्युतसुरेन्द्रः ॥ २५७॥ ततश्च विमलतीर्थानां क्षीरजलधीनां सलिलपूर्णैः । गोशीर्षचन्दनप्रमुखसारवस्तुभिः कलितैः ॥२५८॥ विमलकमलपिधानैः प्रवरसर्वौषधिसनाथैः । स्वाभाविक वैक्रयिक कलशैर्महाप्रमाणैः ॥ २५९ ॥ सप्तमजिनस्य त्रिभुवननिष्कारणबान्धवस्य भक्त्या | जन्माभिषेकमहिमानमच्युतकल्पाधिपः करोति ॥ २६० ॥ अत्रान्तरे युगपत् पर्यस्तकलशानां जिनशिरोऽग्रात् । जलधोरण्यो राजन्ति शिखरिशिखरात् सृता इव ॥२६१॥ प्रहर्षपरवशाभिर्दिग्रमणीभिरिवाथवा क्षिप्ताः । मुक्तावल्यः शोभन्ते निर्मलाविरलकान्तयः ॥२६२॥ १ क. विओवित्ता। 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only ४३ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282