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स्वप्नों का फल बतलाना, फल सुनकर चन्द्रगुप्त का वैराग्य व जिनदीक्षा, उत्तरापथ में दुर्भिक्ष, भद्रबाहु की समाधि, संघभेद आदि का कथन किया गया है।
प्राकृत बोध - ईसा की प्रथम शती से 12 शती तक का दिगम्बर जैन साहित्य प्रायः शौरसनी प्राकृत में लिपिबद्ध है, जैसे- आचार्य धरसेन स्वामी का जोणिपाहुड, पुष्पदन्त भूतबलीस्वामी का षट्खण्डागम, गुणधर स्वामी का कषायपाहुड, आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के समयसारादि, आचार्य शिवार्य की मूलाराधना तथा कार्तिकेय स्वामी की कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि अनेक ग्रन्थ । विभिन्न वाचनाओं के माध्यम से ईसा की पाँचवी शती में श्वेताम्बर आचार्यों ने अर्द्धमागधी प्राकृत में अपना साहित्य व्यवस्थित रूप से संकलित कर लिपिबद्ध किया ।
प्राचीन साहित्य, दर्शन और इतिहास को समझने के लिए विभिन्न प्राकृतों का बोध आवश्यक है। प्राकृत में प्रवेशकर्ताओं को लक्ष्य कर आचार्यश्री ने इस प्राकृत व्याकरण की रचना की है। इसके संयोजन में संस्कृत शास्त्री, भाषा विज्ञानी, सिद्धहेम शब्दानुशासन व प्राकृत व्याकरण वृत्ति आदि प्राकृत व्याकरणों के गहन अध्येता, अनेक प्राकृत रचनाओं के रचयिता, ज्ञानयोगी आचार्य श्री सुनीलसागरजी का मानों ज्ञान ही छलक पड़ा है। इस व्याकरण ग्रन्थ में वर्ण विचार, स्वर परिवर्तन, व्यंजन परिवर्तन, कृदन्त प्रकरण, तद्धित प्रकरण, समास प्रकरण, अव्यय प्रकरण, लिंग विचार, विशेषण विचार, पर्यायवाची शब्द तथा विविध प्राकृतों की विशेषताएँ क्रमशः वर्णित हैं। प्रत्येक अध्याय के अन्त में अभ्यास हेतु अभ्यास प्रश्न भी दिये गए हैं। तथा कृति के अन्त में सम्पूर्ण अधीत व्याकरण का प्राचीन कृतियों पर अभ्यास करने हेतु वाक्य रचना, प्राकृत में लघु निबन्ध तथा अनेक स्तुतियाँ दी गयी हैं । परिशिष्ट में तीनों लिंगों के संज्ञा शब्द तथा सकर्मक अकर्मक क्रिया शब्द दिये गए हैं। भाषा शैली, विषय की क्रमबद्धता तथा प्रतिपादन शैली की अपूर्व सम्बद्धता के कारण प्राकृत प्रवेशार्थियों के लिए यह प्राकृत बोध कृति अत्यन्त उपयोगी बन पड़ी है । इस कृति के सम्पादक प्रो. प्रेम सुमन एवं डॉ. महेन्द्र कुमार जैन 'मनुज' हैं।
जैनाचार विज्ञान - वर्तमान युग में मानव अधिक प्रयोगधर्मी हो गया है । नित्य किए जाने वाले कार्यों का मानव शरीर पर प्रभाव तथा अन्य प्राकृतिक घटना के पीछे निहित वैज्ञानिक कारणों तथ्यों की विवेचना सम्भव है। वैज्ञानिक आविष्कारों से जैनाचार्यों द्वारा स्थापित मान्यताएँ एवं सिद्धान्त पुष्ट ही हुए हैं । कथंचित् यह लिखना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि नवीन वैज्ञानिक ज्ञान के सन्दर्भ में जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित जीवन शैली ही मानव के लिए सर्वाधिक उपयुक्त वैज्ञानिक, प्रकृति से सामंजस्य रखने वाली जीवन पद्धति सिद्ध हुई । प्रस्तुत कृति में इस जीवन पद्धति को
सोलह