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अर्थात् निज आत्मा ही परमात्मा है, आत्मा अपने आप में सम्पूर्ण है, तो फिर तुम बाहर क्यों जाते हो, आत्मा में आत्मा का हमेशा ध्यान करो।
यह कुन्दकुन्द की साहित्य श्रृंखला में सम्मिलित करने जैसा ग्रन्थ बन पड़ा है। आचार्यश्री के इस प्राकृत काव्य में रस है, अलंकार है, अनुभूति है और आत्मानुभाव की तीव्र प्रेरणा है। णियप्पझाण-सारो (निजात्मध्यान सार)-यह प्राकृत भाषा में लिखित लघुकायिक ग्रन्थ है, इसमें कुल 55 पद्य हैं। आत्मध्यान के विषय में लगभग सभी विषयों को स्पष्ट करने वाली यह एक अनुपम कृति है। ध्यान की परिभाषा, भेद, धर्मध्यान के भेद प्रभेद, आत्मा का स्वरूप, आत्मचिन्तन से लाभ, मूढ़ की प्रवृत्ति, शरीरादि की वास्तविकता, निर्ममत्व मोक्षार्थी के गुण आदि विषयों को प्रस्तुत कृति में सरलता से समझाया गया है। आखिर इन सबसे जुड़ने की क्या आवश्यकता है इस पर आचार्यश्री ने प्रश्नात्मक कारिका प्रस्तुत की है
समभावेण को दड्ढो, जिणवक्केण को हदो।
धम्मज्झाणेण को णट्ठो, तम्हा एदम्हि जुंजह॥ अर्थात् समभाव से कौन जला है? जिन वचन से कौन आहत हुआ है? बताओ कौन धर्मध्यान से नष्ट हुआ है? अर्थात् कोई नहीं, इसलिए इसमें भलीभाँति जुड़ जाओ। भावालोयणा-25 गाथामय प्राचीन शौरसेनी भाषा में लिखी गयी भावों की आलोचना है। अपने दोषों की निन्दा-गर्दा करते हुए साधक ने सामायिक व निर्ममत्व की प्रार्थना की है। इसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। सामायिक का साधारण अर्थ है आत्ममिलन। यह जीवात्मा बाहरी पदार्थों में विमोहित होकर स्वयं को भूल गया है। सामयिक से स्व-स्मृति होती है। स्व-स्मृति से स्वकृत दोषों-पापों का बोध होता है और फिर पश्चाताप। पश्चाताप अर्थात् स्वनिन्दा, गर्हा/आलोचना। इस आलोचना/पश्चाताप से प्रायश्चित जन्मता है। प्रायश्चित से आत्मशुद्धि, आत्मशुद्धि से साम्य और मोक्ष का प्रसव होता है।
आचार्य अमितगति के द्वात्रिंशतिका (सामायिकपाठ) की शैली में लिखी गयी यह कृति निश्चित ही भव्यजीवों के भावों को भास्वत करने में सहयोगी होगी। भद्दबाहु-चरियं (भद्रबाहु चरित)-यह आचार्य श्री सुनीलसागरजी की अनूठी प्राकृत कृति गद्यकाव्य है। इसमें अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी का संक्षेप में पूर्ण चरित्र है। पद्यमय मंगलाचरण के उपरान्त भद्रबाहु का जन्म, उनका बचपन, विलक्षणता, शिक्षा, भद्रबाहु की जिनदीक्षा, चंद्रगुप्त के द्वारा 16 स्वप्न देखा जाना, भद्रबाहु द्वारा
पन्द्रह