Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ आचार्यश्री स्वयं शास्त्री व स्नातक हैं, इसलिए उनका साहित्य की विभिन्न धाराओं, विधाओं, व्याकरण और भाषाओं पर अच्छा अधिकार है। प्रस्तुत कृति 'थुदी संगहो' में उन्होंने छन्दशास्त्र और वैयाकरणिक सिद्धान्तों का ख्याल रखते हुए भी अलंकारों, नवरसों और साहित्य की विभिन्न विधाओं का समावेश किया है। प्राकृतों में मूलतः शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग किया गया है। 'थुदी संगहो' के कुछ छन्द प्राचीन गाथाओं श्लोकों का स्मरण करा कर कृति की प्रमाणिकता के प्रहरी बनकर हृदय को अल्हादित कर देते हैं। अन्त में गाथा छन्द में मंगल प्रशस्ति दी गयी है। इस कृति के अनुवादक डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज' इन्दौर, सम्पादक प्रो. डॉ. उदयचन्द जैन उदयपुर तथा प्रस्तावना लेखक डॉ. ऋषभचन्द जैन फौजदार वैशाली हैं। णीदि संगहो (नीति संग्रह)- प्राकृतभाषा में प्रणीत इस ग्रन्थ में कुल 161 पद्य हैं, जिसकी विषय वस्तु को दो भागों में विभाजित किया गया है-धम्म णीदि (धर्मनीति) जिसमें 60 पद्य हैं तथा लोग णीदि (लोक नीति) 101 पद्य हैं। धम्म णीदि में जिनेन्द्र भगवान की महिमा, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रहरूप 'पाँच व्रतों की महिमा, धर्मात्मा का लक्षण, धर्म की महिमा, जिनधर्म की विशेषता, सम्यक्त्व की महिमा, ज्ञान की महिमा, चारित्र की महिमा, तप की दुर्लभता आदि विषयों का वर्णन किया गया है। लोक नीति के 101 पद्यों में पंडित कौन? विवेक की महिमा, दानी कौन है? मित्र का लक्षण, बन्ध मोक्ष का कारण मन, शिष्य का लक्षण, चिन्ता से हानि, किसको कैसे जीतें, अनभ्यासे विषं विद्या, किनका विश्वास नहीं करना चाहिए, किससे क्या जाना जाता है? किसके बिना क्या नष्ट हो जाता है? किनमें लज्जा नहीं करना चाहिए? आदि विषयों का सूक्ष्म दृष्टि से विवेचन किया है। कारिकाओं की भाषा अत्यन्त सरल होने से सर्वजनग्राह्य है। अन्त में नीति संग्रह की रचना का उद्देश्य बताया है धम्मत्थकाम-पत्तत्थं, कल्लाणत्थं च मोक्खणं। आइरिय-सुणीलेण, किदं णीदिअ संगहं॥ भावणासारो (भावनासार)-भावना की परिभाषा करते हुए पंचास्तिकाय में कहा है-"ज्ञातेऽर्थे पुनः पुनश्चितनं भावना" अर्थात् जाने हुए अर्थ का बार-बार चिन्तन करना। मूलाचार में तपभावना, श्रुतभावना, सत्त्वभावना धृतिभावना, सन्तोषभावना, बारह भावना आदि को सदा भाने की बात कही गयी है। साथ ही क्लेशकारिणी कांदी, सांमोही, आसुरी आदि दुर्भावनाओं से बचने के लिए कहा गया है। व्यक्ति की भावना शुद्धि हेतु आचार्य कुन्दकुन्द ने बारसाणुवेक्खा, आचार्यकुमार स्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा, आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव तथा मुनि नागसेन ने तत्त्वानुशासन जैसे स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे। इनके अतिरिक्त और भी कई ग्रन्थ इस दिशा में मार्गदर्शन तेरह

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