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इच्छा उन तक पहुँचायी, उन्होंने अँधेरी एवं वसई की प्रतिष्ठा का कार्यभार उनके कन्धों पर सौंप दिया। गुरुदेव के इस आदेश से उनके स्वास्थ्य की ओर से आप कुछ निश्चिन्त हुए ही थे कि दूसरे ही दिन (24.12.2010) प्रातः उनके समाधिमरण कर देवलोक गमन की सूचना मिली। समाचार सुनकर मानों एक क्षण के लिए आप गुरु वियोग से खिन्नमना हो गए। किन्तु दूसरे क्षण ही संसारदशा का विचार करते हुए,
अनित्य भावना का चिन्तन करते हुए आपने अपने को एवं अपने संघ को स्थिर किया। 26 दिसम्बर 2010 को आचार्यश्री सन्मतिसागरजी महाराज जी की आज्ञा एवं लिखित आदेशानुसार, योग्यतानुसार, योग्यतम शिष्य होने के कारण सारे देश व मुम्बई की विवेकी समाज द्वारा चतुर्थ पट्टाधीश के रूप में विशालतम संघ की जिम्मेदारी आपको सौंपी गयी। आज आचार्य श्री 108 सन्मतिसागरजी की परम्परा को यदि देखा जाए तो आपके पट्टाधीशत्व में दो सौ से अधिक पिच्छी धारी साधु, 12 आचार्य, 3 उपाध्याय, 5 गणिनी आर्यिकाएँ अपनी साधना में रत हैं।
व्यक्तित्व की कुछ झलकियाँ1. आचार्यश्री की जितनी श्रद्धा, भक्ति तथा निष्ठा अपने गुरुदेव के प्रति थी उतनी
ही सरलता, विनम्रता एवं सेवाभाव अपने अधीनस्थ साधुओं के प्रति भी देखा
जाता है। 2. आचार्यश्री वैसे तो ध्यानमग्न होकर शुद्धोपयोग में रमण करते हैं किन्तु यदि
शुद्धोपयोग से बाहर आते हैं तो शुभोपयोग में अध्ययन, लेखन, प्रवचन आदि
करते हैं। 3. भय बिना प्रीति नहीं, इस सूत्र की जगह आपका विश्वास 'प्रीति बिना भय नहीं'
पर अधिक है। क्योंकि यदि प्रीति या विश्वास के टूटने का भय शिष्य को बना रहेगा तो वह अनुशासन के प्रति सजग रहेगा। 4. आचार्यश्री यदि किसी से कुछ त्रुटि हो जाए तो उसके लिए उपालम्भ, प्रायश्चित्त,
अनुशासन का उपयोग तो करते हैं। किन्तु उसके प्रति शाश्वत अवमानना का भाव बिल्कुल नहीं रखते हैं। 5. आचार्यश्री अनुशासन प्रिय हैं, अतः उनका मानना है कि अनुशासन ही संघ की
रीढ़ है। जिस शरीर में रीढ़ की हड्डी स्वस्थ नहीं वह शरीर स्वस्थ नहीं और जिस संघ में अनुशासन नहीं उसका कोई भविष्य नहीं। 6. आचार्यश्री ने जब से पट्टाधीश बनकर संघ का दायित्व सम्भाला है संघ में किसी भी प्रकार का संघर्ष या मनमुटाव नहीं है, यह उनकी संघ के प्रति वात्सल्य
दृष्टि मार्गदर्शन एवं उनके अनुशासन का ही फल है। 7. प्राकृत भाषा में ग्रन्थों को लिखने की विलुप्त परम्परा को आपने प्रारम्भ किया है।
ग्यारह