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श्रीराम
खंग.१
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नवमे आंबिल थयो नीरोग, पामी यंत्रनमणसंयोग॥ सिक्ष्चक्रनो मदिमा जुङ, सकल लोक मन अचरिज दुजे ॥ ४ ॥ मयणा कहे अवधारो राय, ए सवि सदगुरु तणो पसाय ॥ मात पिता बंधव सुत दोय, पण गुरु सम दितु नहीं कोय ॥५॥ कष्ट निवारे गुरु इद लोक, उर्गतिथी वारे परलोक ॥ सुमति दोय सद्गुरु सेवतां, गुरु दीवो ने गुरु देवता ॥६॥धन गुरु ज्ञानी धन ए धर्म, प्रत्यद दीगो जेदनो मर्म ॥ जैनधर्म
परशंसे सहु, बोधबीज पाम्यां तिहां बहु ॥७॥ अर्थ-एम नवमे आयंबिले यंत्रना न्हवणनो संयोग पामीने तेनुं सर्व शरीर रोग रहित थयु, माटे हे नव्यो ! श्रीसिद्धचक्रनो महिमा जुर्ज के जे देखीने समस्त जे लोक तिहां हतां, तेमनां 8 मनमां आश्चर्य पेदा थयुं ॥४॥ ते वारे मयणासुंदरी कहे डे के हे राजन् ! ( अवधारो के०) जुङ, विचारो के आ तमे रोग रहित थया, ए सर्व सद्गुरुनो पसाय जाणवो. संसारमा माता, पिता, बंधव जे जाइ अने डोकरा, ए सर्व हेतु होय ने खरा, पण गुरु समान हितनो करनार कोइ पण जाणवो नहीं ॥ यतः ॥ अन्न पखे त्राट नहीं, वाणी पखे जाट नहीं ॥ गरथ पखे हाट नहीं, गुरु पखे वाट नहीं ॥१॥ इति ॥ ५॥ गुरु जे जे ते आ लोकने विषे पण कष्टनुं निवारण करे अने परलोके जुर्गतिमां पम्वाथी वारी राखे एटले माठी गतिमां परवा दीये नहीं, सद्गुरुने सेवतां थका (सुमति के० ) नली बुद्धि होय, माटे गुरु दीवा समान तथा देवता समान जाणवा ॥ यतः॥ गुरुः कल्यवृदो गुरुः कामधेनु,-र्गुरुः कामकुंनो गुरुर्देवरत्नम् ॥ गुरुश्चित्रवन्विर्गुरुः कल्पवति,-गुरुदक्षिणावर्त्तशंखः पुनश्च ॥ इति ॥१॥६॥ धन्य डे ए ज्ञानी गुरुने ! तथा धन्य ए धर्मने ! के जेनो ( मर्म के०) रहस्य सार ते प्रत्यक्षपणे दीठो. एवी रीते सहु कोश् श्रीजैन
॥२४॥
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