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सिक्ष्चक्रनो सेवक, हूं व देवता ॥ दो लाल के ॥ हुँ॥ के नहरीया धीर, में एहने सेवता ॥ दो लाल ॥ में ॥ सिक्ष्चकनी नक्ति, घणी मन धारजो ॥ दो लाल ॥ घणी ॥ मुजने कोश्क काम, पडे संन्नारजो ॥ दो लाल ॥ पडे ॥ ११॥ एम कदीने देव, ते निज थानक गयो । दो लाल ॥ ते निज० ॥ कुंअर पोढ्यो सेज, निचिंतो मन थयो ॥ दो लाल ॥निचिंतो ॥ जाग्यो जिसे परनात, तिसे मन चिंतये ॥ दो लाल ॥ तिसे० ॥ कुंमल नयर मकार, ज बेसुं हवे ॥ दो लाल ॥ जय० ॥ १२॥ नयण उघाडी जाम, विलोके आगले ॥ हो लाल ॥ विलोके ॥ देखे जन्नो आप, नयरनी नागले ॥ दो लाल ॥नयरनी० ॥ दीग तिहां दरवाण, ते वीण वजावता ॥ दो लाल ॥ ते ॥ राजकुंअरीनां रूप, कला गुण गावता ॥ हो लाल ॥ कला ॥१३॥ अर्थ-हे कुंवर ! हुं श्रीसिद्धचक्रनो सेवक देवता बुं. ए सिझचक्रने सेवता एटले सेवन कर-18 नारा एवा केटलाएक धीरजवंतोने में उडया ने, माटे तमे पण श्रीसिद्धचक्रनी नक्ति घणी मन मांहे धारजो, अने जो कोश्क काम पडे तो मने संचारजो ॥ ११॥ ए प्रमाणे कहीने ते देवता पोताने स्थानके गयो, अने श्रीपाल कुंवर पण पोतानी सेज उपर जश् पोढ्यो, एटले सुश रह्यो, तेनुं मन निश्चिंत थयुं . हवे प्रनाते जेवो जाग्यो तेवोज कुंवर पोताना मनमां चिंतववा लाग्यो के हवे कुंमलपुर नगरमां जश् बेसुं ॥ ॥ एवं चिंतवीने (जाम के )जे वारे पोतानां (नयण के) नेत्र उघामीने आगल (विलोके के०) जुवे ने तो ते वारे पोताने कुंडलपुर नगरनी
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