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कां पण मनमां धरो नहीं, कारण के नव पदजीना ध्याने करी सर्व पाप पलायन करी जाय . वली एना ध्यान आगल ग्रह वक्र जे वांका ग्रह तेनी (उरित के० ) माठी चार जे गति तेजें। जोर कांश पण न बे एटले नथी चालतुं ॥४॥
अरि करि सागर दरि ने व्याल, ज्वलन जलोदर बंधन नय सवे जी॥ जाय रे जपतां नव पद जाप, लदे रे संपत्ति इह नवे परनवे जी ॥५॥ बीजां रे खोजे कोण प्रमाण, अनुन्नव जाग्यो मुज ए वातनो जी॥ दुर्ज
रे पूजानो अनुपम नाव, आज रे संध्याए जगतातनो जी॥६॥ अर्थ-(अरि के० ) शत्रु, ( करि के०) हाथी, ( सागर के०) समुह, ( हरि के०) सिंह श्रने ( व्याल के०) सर्प, (ज्वलन के० ) अग्नि, (जलोदर के० ) जलोदर रोग, (बंधन के०) बंदिखानु, ए श्राप जातिना मोटा जे जय ठे ते सर्वे नव पदनो जाप जपतां थका दूर नासी । जाय, अने आ नवे तथा परनवे संपत्ति पामीए, तो हे सासुजी ! आ परचक्रनो जय ते नव पदना जाप श्रागल कोण मात्र ? ॥५॥ वली पण मयणा कहे के हे स्वामिनि ! बीजां प्रमाणने कोण ( खोजे के० ) ढूंढे ? अथवा परचक्रनी चिंता उपनी तेने निवारवा माटे केटलाएक। मुग्ध प्राणी ज्योतिष, निमित्तादिकनां कारण तेनी खोज करे, एटले जोवरावे, ते कोण प्रमाण ? - एटले एवां लौकिक प्रमाण जोवाथी शुं थाय ? मुजने तो ए वातनो अनुजव जाग्यो जे चित्तमां परचक्रनुं कांश्क चिंतन हतुं ते हवे आज संध्याए श्रीजगतात एटले त्रण जगतजनने पिता | समान एवा श्रीअरिहंत देव तेनी धूप, दीप, पूजा करवाना अवसरे को उपमा न आवे एवो है अनुपम नाव थयो. ते एवो के जे अनादि कालनो ए जीव चार गतिमा भ्रमण करतां अनंती वार श्रावक, कुल पाम्यो, धर्म पण उलख्यो अने देवनी पूजा पण करी, परंतु ए जीवने विनाव
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