Book Title: Shrimad Devchand Padya Piyush
Author(s): Hemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 15
________________ [ नौ ] श्रीमद् की रचनाओं में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ व आवश्यक टिप्पणियां भी दे दो गई हैं। इससे पाठकों को अर्थागम व कवि के भावों को समझने में कुछ सरलता व सुविधा होगी, साथ ही अर्थ समझ कर पाठ करने से विशेष प्रानन्द की अनुभूति हागी। श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज की प्रत्येक रचना आध्यात्मिक भावों से प्रोतप्रोत है। प्रत्येक पद में आध्यात्मिकता स्पष्ट रुप से परिलक्षित होती है। दूसरी विशेषता जो भक्ति की अतिशयता है वह अध्यात्मिक्ता के साथ स्वर्ण मणिवत् संयोग है। यद्यपि वे स्वयं जैन दर्शन के कर्ता स्वतंत्र पद का प्रतिपादन करते हैं कि आत्मा स्वयं, स्वयं के ही पुरुषार्थ द्वारा अनादिय रंक दशा से मुक्त बनेगी किन्तु निमित कारण का भी कम महत्वपूर्ण स्थान नहीं। अतएव अतिशय भक्ति को व्यक्त करने वाले भावों को व्यक्त करते समय प्रभु वीतरागदेव जो कि उपादान शुद्धि के लिए निमित्त कारण है, उनमें हो कहीं कहीं कर्ता पद का आरोप कर देते हैं। प्रभु से अनुनय-विनय करते हैं। आत्म शुद्धि के लिए, प्रात्म मुक्ति के लिए बार-बार प्रार्थना करते हैं। अतिशय भक्ति के क्षणों में ऐसे उद्गार निकले हैं जैसे कि तार हो तार प्रभु मुझ सेवक भणी जगत में एटलू सजश लीजे दास अव गुण भर्यों जागी पोतातणो दया निधि दीन पर दया कीजे ॥ जैन दर्शन में ऐसे ईश्वर को कोई स्थान नहीं है जो इस जगत का कर्ता, धर्ता या हर्ता हो। जैन मतानुसार ईश्वर का परवाना किसी एक व्यक्ति को प्राप्त नहीं है। संसार का कोई भी व्यक्ति स्वात्मा का विकास और उत्क्रांति कर परमपद् प्राप्त कर सकता है। नर से नारायण बन सकता है, ईश्वरत्व की प्राप्ति कर सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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