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अठारहवीं शताब्दी के महान् संत, आदर्श विभूति, जैन-आगम साहित्य के प्रकांड पंडित तथा जैन-द्रव्यानुयोग के प्रखर अध्येता एवं व्याख्याता श्रीमद् देवचन्द्र जी की कुछ प्रकट-अप्रकट रचनाओं का संग्रह "श्रीमद् देवचन्द्र पद्यपीयूष" पुस्तक का सम्पादन श्रीमद् के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण करने का मेरे लिए एक अपूर्व एवं सुन्दर अवसर है।
परम पूज्य गुरूदेव मुनिराज श्री जयानन्दमुनिजी महाराज साहब पाली चतुर्मास के बाद नागौर जाते हुए जब जोधपुर पधारे तब मैं कुशल भवन में आप श्री के दर्शनार्थ गया। उस समय महाराज श्री ने प्रस्तुत पुस्तक की प्रेस कॉपी मुझे दी और बोले इसे देखिए, छपवाना है।
प्रेस कॉपी का अवलोकन कर मैंने कुछ सुझाव महाराज श्री के सम्मुख रखे। मेरे सुझावों को सुनकर महाराज श्री ने कहा "आप जैसा चाहें" उस तरह के सुधार करें, इसके संपादन की जिम्मेदारी आपको ही उठाना है ।
मैं संकोच में पड़ गया। मेरे पास न तो आध्यात्मिक पृष्ठ भूमि है. न ही जैन तत्व ज्ञान का गहरा अध्ययन है, और न प्राचीन भाषाओं का परिपक्व ज्ञान ही। ऐसी वस्तु-स्थिति में किस आधार पर इस पुस्तक के सम्पादन की जिम्मेदारी स्वीकार करता। पर महाराज श्री की आज्ञा को अस्वीकार करना भी मेरे लिए संभव नहीं था। अतः गुरूदेव के आशीर्वाद व मार्ग दर्शन का संबल प्राप्त कर मैंने इस जिम्मेदारी को स्वीकार कर लिया।
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