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श्रमण संस्कृति की रूपरेखा
पूर्व परिचय :
भारतवर्ष में दो मुख्य संस्कृतियाँ - जैन श्रमण संस्कृति ( जैन एवं बौद्ध) और वैदिक संस्कृति प्रधान मानी जाती है । इन दोनों संस्कृतियों ने, देश के आन्तरिक और बाह्य जीवन के विकास में, अनेक प्रकार से योगदान दिया है । इसमें से श्रमण संस्कृति प्रति प्राचीन और त्याग - प्रधान गिनी जाती है । एक समय, श्रमण संस्कृति सारे भारत में फैल गई और उस समय, इस संस्कृति के उपासकों की संख्या करोड़ों के आस- पास पहुँच गई थी । यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है । जैन धर्म का अधिकाधिक विस्तार राजा संप्रति के समय: लगभग वीर संवत् 297 ( विक्रम संवत् पूर्व 173 - ईसा सन पूर्व 230 ) में हुआ था | भगवान् महावीर ने भारत में अपना धर्म प्रचार किया था परन्तु राजा संप्रति ने, देश के बाहर भी जैन धर्म का प्रचार और प्रसार किया था । यह बड़ी विपुल जनसंख्या, प्रभावशाली धर्म-प्रणेताओं और प्रचारकों के निर्मल अन्तर तप तथा त्याग की झाँकी कराती है । I
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ऋषि और मुनि :
भारत और पाश्चात्य देशों के विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है कि वेद पूर्व काल में, एक प्रगतिशील, समृद्ध और सर्वव्यापी श्रमण-संस्कृति थी जिसका उल्लेख वेदों, उपनिषदों और पुराणों में मिलता है । इन विद्वानों में डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. हर्मन जेकोबी, विन्सेण्ट स्मिथ आदि आते हैं । ऋषि और मुनि इन दो शब्दों को प्राचीन वैदिक साहित्य में, पर्यायवाची नहीं मानते हुए, भिन्न-भिन्न अर्थ में वर्णित किया गया है। ऋषि स्वभावतः प्रवृति-मार्गी होते थे और मुनि निवृति-मार्गी एवं मोक्ष-धर्म के प्रवर्तक होते थे । इन दोनों पक्षों को आजकल वैदिक मार्ग और श्रमरण मार्ग शब्दों से सम्बोधित
1. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला लेखक : स्व. मुनि श्री पुण्यविजयजी, प्रकाशक साराभाई मरणीलाल नवाब अहमदाबाद पृष्ठ सं. 1-2
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