Book Title: Shraman Parampara Ki Ruprekha
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Bhagwan Mahavir 2500 Vi Nirvan Samiti

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Page 61
________________ [47] (वि. सं. 1690-ई सं. 1633) में 'पात्रिया. पंथ' चला था जिसमें वे कल्याणजी भाई से दीक्षित हुए थे। इस पंथ के ब्रह्मचारी लाल वस्त्रों में रहते थे। उनका प्रचार क्षेत्र सौराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, मालवा, मेवाड़, मार वाड़ आदि में रहा । उनको शिष्यों सम्पदा 99 प्राप्त हुई, जिसको 22 विभागों में विभक्त करने से 22 बाईस टोला की उत्पत्ति वी. सं. 2242 (वि. सं. 1772-ई. सं. 1715) में महावीर जयन्ती की स्थापना हुई। उनका स्वर्गवास वि. सं. 1769 में हुआ। उनकी परम्परा में प्राचार्य भीषणजी हुए जो श्री रघुनाथजी के शिष्य थे। प्रा. भीषणजी ने नया तेरा पंथ संप्रदाय स्थापित किया जिसका वर्णन आगे किया गया है। 2. श्री जीतमल जी भी जो कि तेरा पंथ के महान जयाचार्य के नाम से हुए हैं, इसी स्थानकवासी सम्प्रदाय से निकले हुए हैं । कवि पू. श्री रतनचन्दजी (स्वर्गवास वि. सं. 1902) ने आगमों का गम्भीर अध्ययन कर हजारों जैनेतरों को जैन धर्मा-1 नुयायी बनाया पू. श्री धर्मराज ने वेष रजोहरण, मुखपति, चादर तथा चोलपट्टा रखा। उनके शिष्य मूलचन्दजी म. तथा 9 पट्टधरों से 7 सम्प्रदाय निकले जो लीवड़ी, मांडल, वटवाल, चूडा, धांगध्रा, कच्छ, सावन्ती, वोटाद, खंभात आदि प्रदेशों में प्रसारित हुए । पू. मूलचन्दजी का सम्प्रदाय 'लोंबड़ी का वड़ा सन्प्रदाय' माना जाता है। स्थानक शब्द का प्रयोग आ. जीवराजजी के बाद प्रचलित हुअा क्यों कि उपाश्रय में ठहरने से ममत्व का कारण बन जाना माना जाने लगा। लोकाशाह 31 शास्त्र मानते थे, लवजी ऋषि ने प्रावश्यक सूत्र जोड़कर 32 शास्त्र माने और पू. धर्मदासजी ने शास्त्रों पर टिप्पणी लिख कर उनकी वृद्धि की । इस सम्प्रदाय ने, उन ट्बबो को प्रमाणित रूप से स्वीकार किया और उसके बाद, स्थानकवासी श्रमणों ने, रास, चौपाई, ढाल, कविता से शास्त्र अनुदीत किये । लोक प्रचार और प्रात्म साधना इस सम्प्रदाय का लक्ष्य है। लीबड़ी सम्प्रदाय में कच्छ के निवासी पू. रतनचन्दजी म. स्व. वी. सं. 2410 (वि. सं. 1940- ई. स. 1883) में हुए जो संस्कृत भाषा के धाराप्रवाही प्रवचनकार थे। उन्होंने 'अर्द्ध मागधी कोष' 'जैन सिद्धान्त, कौमुदी', 'सुबोध प्राकृत व्याकरण' की रचना की। उन्हें जयपुर में 'भारत) रत्न' की उपाधि प्राप्त हुई । . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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