Book Title: Shraman Parampara Ki Ruprekha
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Bhagwan Mahavir 2500 Vi Nirvan Samiti

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Page 63
________________ [49] अनुवाद भी हो चुका है। भगवान् महावीर का अादर्श जीवन' भी उनका विशाल ग्रन्थ है जिसमें संक्षेप में जैन धर्म की सादी रूपरेखा है । उन्होंने सिर्फ महाजनों, वेश्यों को ही दीक्षा नहीं दी किन्तु अन्य जातियों के लोगों को भी जैन धर्म में दीक्षित किया। ग्राप 'जगत् वल्लभ' 'जैन दिवाकर' के नाम से प्रसिद्ध थे। वी. सं. 2376 (वि. सं. 1906 - ई. स. 1849) में अखिल भारतवर्षीय जैन कान्फ्रन्स हुई तब सारे देश के स्थानकवासी श्रमण 1595 सम्मिलित हुए जिनमें 463 साधु और 1132 साध्वियां थी। वे तीस अलगअलग सम्प्रदाय के थे ।। तेरा पंथ की परम्परा : तेरा पंथ की स्थापना वी. सं. 2287 (वि. सं. 1817---ई. सं. 1760) की आषाढ़ पूणिमा को उदयपुर मेवाड़ के राजनगर कस्बे से तीन मील केलवा गाँव में हुई। प्राद्य प्रवर्तक एवं प्रथय प्राचार्य भीखणजीभिक्खु स्वामी-(वी. सं. 2287 से 2330-वि. सं. 1817 से 1860ई. स. 1760 से 1803) हुए जिन्होंने स्थानकवासी सन्त श्री रघुनाथजी अपने गुरु से वि. सं. 1817 चैत्र सुदी 13 को चार साधुनों के साथ मत-भेद होने से जुदा हुए और बगड़ी में प्राकर ठहरे । बगड़ी से जोधपुर पधारे तो 13 साधु कुल हो गये जिससे 'तेरा पंथी' नाम से सम्बोधित हुए । जोधपुर से केलवाड़ा पाकर निर्जन जैन मन्दिर की अन्धेरी कोठड़ी में कहीं स्थान न मिलने से रहे। वहां पर एक सर्प भी निकला और उपसर्ग में रात व्यतीत की। प्रारम्भ में पात्र और आहार की कठिनाई पड़ी किन्तु सब कुछ सहन करके धर्म प्रसार, आगम चर्चा और शिष्यों के प्रशिक्षण में प्रभु को यह विनती की कि यह 'तेरा पंथ' है। तेरा पंथ सम्प्रदाय को अपने समय में आगे बढ़ाया। 38 हजार श्लोक परिमित रागिनी पूर्ण कविताएँ, लिख कर 1 'जैन धर्म का इतिहास' प्रमुखत: श्री श्वे. स्थानकवासी जैन धर्म का इतिहास-लेखक : मुनि श्री सुशीलकुमार जी। प्रकाशक मन्त्री सम्यग् ज्ञान मन्दिर । 87 धर्म तल्ला स्ट्रीट कलकत्ता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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