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जैन साहित्य में अपना योगदान दिया। इनका साहित्य 'भिक्षु रत्नाकर' पुस्तक में संकलित है । प्राचार्य भीषणजी निपुण और कुशाग्र बुद्धि वाले थे ।
2. तेरा पंथ के दूससे प्राचार्य भारमलजी (वी. सं. . 330 से 2348 वि. सं. 1860 से 1878-ई. स. 1803 से 1821) हुए जिन्होंने मेवाड़, मारवाड़, ढढाई और हाड़ौती में इस पंथ का प्रचार और प्रसार किया। वे सुदृढ़ अनुभवी शासक हो गये हैं।
3. तीसरे प्राचार्य रायचन्दजी'ऋषिराय' (वी. सं. 2348 से 2378–वि. सं. 1878 से 1908-ई. स. 1821 से 185 ) हुए हैं जिन्होंने अपना क्षेत्र मेवाड़, मारवाड़, ढ ढाड़ आदि प्रदेशों से आगे मालवा गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ तक बढ़ाया । वे धर्म चर्चा में विशेष रुचि रखते थे एवं तपस्या प्रेरक सन्त थे । प्रागमों का अर्थ सहित अध्ययन किया था। सरस व्याख्याता भी थे।
4. चौथे प्राचार्य जीतमलजी जयाचार्य ( वी. सं. 2378 से 2408 वि. सं 1908 से 1938 ई. स.1851 से 1881) थे जिनका समय तेरा पंथ का निर्माण काल माना जाता है । उनके समय में तेरा पंथ का सर्वतोमुखी विकास हुमा । सब सिंघाड़ों (छोटे सम्प्रदायों) की पुस्तकों को मंगवा कर समान वितीर्ण किया और तेरा पंथ के श्रमणों की मर्यादाओं का वर्गीकरण किया । ये प्रभावशाली प्राचार्य हुए हैं और उनके उपदेश से मेवाड के महाराणा भीमसिंहजी एवं युवराज जवानसिंहजी पर अच्छा प्रभाव हुआ । इनका समस्त जीवन श्रु त उपासना में बीता। 3 लाख पद्य प्रमाण साहित्य आगमों की 'जोड' पद्य टीका कर जैन शासन को उपकृत किया । भक्ति पटक अनेक स्तुतियां रची जिनमें तीर्थङ्करों की स्तुतियाँ, 'लवु चौबीसी' तथा 'बड़ी चौबीसी प्रसिद्ध हैं। इनका विहार क्षेत्र, मारवाड़, मेवाड़, मालवा, ढू ढाई, हाड़ौती, गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, हरियाणा, दिल्ली प्रदेश रहा ।
5. पांचवें प्राचार्य श्री माधव गरिण ( वी. सं. 2408 से 2419वि. सं 1938 से 1949-ई. स. 1881 से 1892) थे। वे अपनी सरल प्रकृति, शांत प्रकृति, पाप भीरुता, स्थिर बुद्धि से सर्व प्रिय हो गये हैं। तेरा पंथ समाज में. संस्कृत के प्रथम विद्वान् और जैनागमों के धुरन्धर पंडित
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