Book Title: Shraman Parampara Ki Ruprekha
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Bhagwan Mahavir 2500 Vi Nirvan Samiti

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Page 59
________________ [45] 'बीस पंथी' कहलाने लगे। पं. टोडरमल के पुत्र गुमानीरामजी ने वी. सं. 2288 (वि. सं. 1818-ई. सं. 1761) या वी. सं. 2307 (वि. सं 1837-ई. सं. 1780) में जयपुर में नया पंथ 'गुमान पंथ' चलाया। इन्होंने मन्दिर में जाकर तीर्थङ्करों का कटोरी में आह्वान कर पूजा करना शुरू किया था । वी. सं. 2331 से 2340 (वि. सं. 1861 से 1870ई. सं. 1804 से 1813) के बीच में छाबड़ा गोत्रीय जयपुर निवासी खंडेलवाल गोत्रीय पं. जयचन्द ने 60,000 परिमित भाषा टीकाएँ बनाई थी। 'सर्वाद्ध सिद्धि', 'परीक्षा-मुख', 'द्रव्य-संग्रह', 'ज्ञानार्णव', 'समय-सार' आदि प्राकृत संस्कृत के दार्शनिक और गम्भीर ग्रन्थों की सरल भाषा में टीका लिखी ।। स्थानकवासी श्रमरण : पूर्व में लोकाशाह के लिये यह कहा गया था कि वे एक गृहस्थ थे। दूसरा मत यह भी है उन्होंने वी. सं. 2006 (वि. सं. 1536--ई. सं. 1479) मार्ग शीर्ष शुक्ला 5 को ज्ञानजी मुनि के शिष्य सोहनजी के पास दीक्षा ली थी। लोंकागच्छ ढ़ढियामत जो बाद में स्थानकवासी सम्प्रदाय के नाम से प्रख्यात हुआ, पाँच मुख्य सन्तों के परिवारों में विभाजित होना पाया जाता है। सबसे प्रथम श्रमण श्री जीवराज जी महाराज हुए जिन्होंने वी. सं. 2045 (वि. सं. 1575-ई. सं. 1518) में दीक्षा ली थी। उनके समय में स्थानक वासी वेष वस्त्र, पात्र, मुखपति, रजोहरण और रजस्त्राण प्रमाण रूप से प्रभावित हुआ। स्थानक वासी समाज में (1) 32 पागम (2) मुखपति और (3) चैत्य पूजा से विमुखता पर सुधार किया गया। मालवा देश में धर्म जागरण करने का श्रेय उनको दिया जाता है । ये 10-12 संप्रदायों के मूल पुरुष कहे जाते हैं । काठियावाड़ के सिवा सर्वत्र श्री जीवराज जी की परम्परा के साधु साध्वियों की मान्यता है। उनका स्वर्गवास वी. सं. 2068 (वि. सं. 1598 - ई. सं. 1541) के करीब हुआ । 1. 'राजस्थान साहित्य की गौरवपूर्ण परम्परा' : अगरचन्द नाहटा : प्रकाशक ओमप्रकाश, राधाकृष्ण प्रकाशन, अन्तरी रोड़, दरियागंज, दिल्ली, पृ. 113-114 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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