Book Title: Shraman Parampara Ki Ruprekha
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Bhagwan Mahavir 2500 Vi Nirvan Samiti

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Page 58
________________ [44] वि. सं 1500 से पूर्व की रचनाएं मिलती है । दिगम्बर साहित्य सब भाषाओं में मिलता है परन्तु हिन्दी में विशेष है। हिन्दी में दीपचन्द कासलीवाल ने वि. सं. 18 वीं सदी में, 'चिदविलास' और 'प्रात्मावलोकन', 19वीं सदी विक्रम में पं. दौलतराम ने पद्मपुराण, प्रादि पुराण और श्रीपाल चरित, पं. टोडरमल ने गोमटसार, लब्धिसार, क्षमण-सार की भाषा टीका 46000 श्लोक परिमाण में लिखी थी । पं. सदासुख ने 'रत्न-करण्ड' (श्रावकाचार) 'तत्वार्थ सूत्र भाष्य' और 'भगवती आराधना' लिखी। दिगम्बर आम्नाय में भी वनवासी मूल-संघ और चैत्यवासी द्राविड़ संघ, मुख्य माने जाते हैं । वी. सं. 2042 (वि. सं. 1572-ई. सं. 1515) के पूर्व, तारण स्वामी ने तीसरा 'तारण संघ' सेमर खेड़ी गाँव (भूत पूर्व टोंक राज्य के अन्तर्गत) में स्थापित किया और 14 शास्त्रों का निर्माण किया । जिन पूजा के विरोध में शास्त्र पूजा शुरू की। श्वेताम्बरों के यतियों की तरह दिगम्बर में भी भट्टारक प्रथा का प्रादुर्भाव हुमा वी. सं. 1689 (वि. सं. • 1219-ई. सं. 1162) में । आ. हेम कीत्ति के शिष्य चारुनन्दि ने, दिल्ली के बादशाह के कहने से वस्त्र-धारण किया तब से इस संस्था का प्रादुर्भाव हुआ । उनके अनुयायी शिष्य 'बीस पंथी' कहलाए। भ. हेम कीत्ति और चारु कीत्ति इत्यादि परम्परा वाली ई डर के भट्टारकों वाली पट्टावली मिलती है। भट्टारकों की गादी राजस्थान में चित्तौड़, नागौर आदि स्थानों पर प्रसिद्ध गिनी जाती थी। भट्टारक श्रमण धन का उपयोग भी करने लग गये थे। भट्टारकों के शैथिल्य की प्रतिक्रिया हुई कर्म ग्रन्थों और कुन्द-कुन्दाचार्य, प्रा. अमृतचन्द्र, सोमदेव प्रादि के अध्यात्म ग्रन्थों के अभ्यासी विद्वान् व्यक्ति, उन लोगों को अनादर की दृष्टि से देखने लगे और स्वयं अध्यात्मी कहे जाने लगे। अध्यात्म विद्वानों की परम्परा में, आगरा के दशा श्रीमाली पं. बनारसीदास, चतुर्भुज, भगवतीलाल, कुमारपाल और धर्मदासजी, वी. सं. 2150 (वि. सं. 1680-ई. सं. 1623) में 'तेरह पंथ' चलाया जिसका अपर नाम 'बनारसी मत' है क्योंकि इस परम्परा को पं. बनारसीदास से विशेष बल मिला। इस मत के स्थापित होने पर, भट्टारक अपने आप को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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