Book Title: Shraman Parampara Ki Ruprekha
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Bhagwan Mahavir 2500 Vi Nirvan Samiti

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Page 16
________________ [2] किया जाता है। अतएव श्रमरग संस्कृति (जैन संस्कृति और बौद्ध संस्कृति) और वैदिक संस्कृति, भारतीय संस्कृति की प्रमुख धारा मानी जानी चाहिये। 1 जैन संस्कृति के सिद्धान्त और प्रचार : मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा के टीलों के उत्खनन से, जो ध्यानस्थ मुनि की प्रतिमाए' मिली हैं, उनसे श्रमण संस्कृति की प्राचीनता का पता चलता है। इस श्रममा संस्कृति के प्रचारक, चौबीस तीर्थङ्कर- भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर हए जिन्होंने असंख्य काल से जैन धर्म का प्रचार किया । भगवान् महावीर को आज भी "श्रमण भमवान् महावीर" कहा जाता है। इन तीर्थङ्करों ने, दया, करुणा, अहिंमा तथा मर्व-धर्म समानत्व (अनेकांत | वाद या स्याद्वाद) की प्रवर्तना की जो श्रमण संस्कृति की अमूल्य निधि है। भगवान् महावीर के पश्चात् इन 2500 वर्षों में उनके ग्यारह गणधरों--गौतम सुधर्मा स्वामी आदि और चन्दन बाला प्रादि सती साध्वियों ने, भारत में जैन धर्म के सिद्धान्तों को फैलाया। बड़े-बड़े आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं एवं साध्वियों ने अनेकानेक राजाओं, महाराजाओं और साधारण जनता को उपदेश देकर उन्हें जैन धर्मानुयायी बनाया, कई जैन तीर्थों को स्थापित किया। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़ भाषाओं में जैन साहित्य लिखकर जैन भण्डारों में संग्रह किया। प्राचीन एवं अर्वाचीन जैन साहित्य इतना विपुल, विशाल और विस्तृत है कि शायद ही अन्यत्र इसकी तुलना की जा सके । ग्रन्थ भण्डारों के साथ-साथ चित्रकला, स्थापत्य, वास्तुकला और लिपि कला का भी इस परम्परा में महान विकास हुा । श्रमण वेलगोला, देलवाड़ा आबू और राणकपुर के अद्वितीय और अनुपम जैन प्रासाद विश्व में प्रसिद्ध हैं जिनकी समानता नहीं की जा सकती है । जैन धर्ममतावलम्बी 1. भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ प्रकाशक-सन्मति ज्ञान प्रसारक मण्डल मोलापुर 1976, सर्वार्थ सिद्धी खण्ड : लेख "जैन संस्कृति की प्रानीनता' - एक चिन्तन लेखक- डॉ. मंगलदेव शास्त्री, पूर्व कुलपति संग्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, पृष्ठ 66-72. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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