Book Title: Shraman Parampara Ki Ruprekha
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Bhagwan Mahavir 2500 Vi Nirvan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ [13] (चित्तौड़गढ़) और नागौर में थी । जैसे लोंका शाह ने श्वेताम्बरों में मूर्ति पूजा को अमान्य माना वैसे ही दिगम्बर परम्परा में तारण स्वामी (वी. सं. 1975 से 2042–वि. सं. 1505 से 1572 . ई. सं. 1448 से 1515) में मूर्ति को अमान्य घोषित किया । उन्होंने 'तारण-तरण' समाज की स्थापना की जो चैत्यालय (मन्दिर) के स्थान पर सरस्वती भवन और मूत्ति के स्थान पर शास्त्रों को विराजित करता है । वी. सं. 2200 वीं. (वि. सं. की 17 वी.-ई. सं. की 17 वीं) सदी में भट्टारकों के विरुद्ध पंडित बनारसीदास ने शुद्धाम्नाय का प्रचार किया जो आगे चल कर, 'तेरह पंथ' के नाम से विख्यात हुआ और भट्टारकों का पुराना मार्ग 'बीस पंथ' कहा जाने लगा। ___इस प्रकार भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात्, जैन धर्म में कई भेद, मत, कुल, गण, गच्छ, संघ, पंथ, समयानुकूल होते गये, और विधिविधान में भी कई परिवर्तन आये। फिर भी 2500 वाँ निर्वाण महोत्सव सर्वाधिक जैन संप्रदायों ने मिल कर, देश और विदेश में जैन धर्म के सिद्धान्तों और भगवान महावीर के उपदेशों का प्रचार कर उल्लास पूर्वक मनाया, वह अभूतपुर्व और बेमिसाल है। मत मतान्तर और गच्छ भेद पर दृष्टिपात नहीं करते हुए वीर निरिंग के बाद जो जैन धर्म का विकास और विस्तार हुअा, उसका उल्लेख संक्षिप्त में मुख्य घटनाओं के साथ किया जाता है । भगवान महावीर की परंपरा का 2500 वर्षों का सिंहावलोकन वीर संवत् 1 से 1000 महावीर शासन का अभ्युदय पहले पूर्व देश में होकर उसका विकास अनुक्रम से उत्तर भारत और पश्चिम भारत तथा दक्षिण की तरफ हुमा और राजपुताना तथा गुजरात में विस्तृत हुआ। वीर संवत् की 10 वीं (विक्रम की 5 वीं सदी) में गुजरात में जैनियों का प्रसार प्रारम्भ हुआ और वीर संवत् की 17 वीं तथा 18 वीं (वि. सं. की 12 वीं तथा 13 वीं) सदी तक गुर्जर भूमि जैन धर्म का मुख्य स्थल बना। वीर संवत् 1 (वि. सं. पू. 470 ई. सन् पू. 527) में जिस रात्रि को भगवान् महावीर का निर्वाण हुअा उस रात्रि के पिछले भाग में उनके प्रथम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108