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वी. सं. 1978 (वि. सं. 1508 -- ई सं. 1451 ) में लुकामत ( जो बाद में ढूढक (खीज) वृत्ति के कारण बुढियाँ पन्थ कहलाया) लोंकाशाह ने प्रवृत किया । लोकाशाह, यति ज्ञानसुन्दरजी के पास लहिया शास्त्रों की हस्तलिखित प्रतियाँ बनाने वाले थे । उन्होंने अकाल पीड़ितों की तन, मन, धन से सेवा की और एक आदर्श गृहस्थ माने जाते थे । जैन धर्म के मूल तथ्य की खोज करके जिन प्रतिमोत्थापन में विश्वास रखते हुए दया धर्म का प्रचार श्रावक लखमशी और भारगजी की सहायता से किया । वी सं. 2001 (वि. सं. 1531 - ई. सं. 1474 ) से गुरण पूजक धर्म विस्तार प्राप्त करने लगा । लोकागच्छ ( लोंकामत) के प्रथम वेशधारी साधु भागजी हुए और उनसे वी. सं. 2003 (वि. सं 1533 ई. से 1470 ) में देशधरों की उत्पत्ति हुई । लोकाशाह के 400 शिष्य थे। वी सं. 2038 (वि. सं. 1568 -- ई. सं. 1511 ) में लोंकागच्छीय बेषधारी रूपजी, बी. स 2048 (वि. सं. 1578 - ई. सं. 1521 ) में लुपक बेशधारी जीवाजी ऋषि, वी. सं. 2057 (वि. सं. 1587 – ई. सं. 1530 ) में लुपक मती वृद्ध वर सिंहजी, वी सं. 2076 (वि सं 1606 –– ई स ं 1549 ) में तु कामत के वृद्ध वर सिंहजी प्रसिद्ध हुए हैं । लोकागच्छ का शनैः शनै: देश में प्रचार हुआ | गुजराती लोकागच्छ, बड़ौदा, सौराष्ट्र, गुजरात तथा कच्छ में विस्तृत हुआ, नागौरी लोकागच्छ, राजस्थान, देहली प्रदेश में फैला और उत्तरार्द्ध, पंजाब, पेप्सु, पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान), उत्तर प्रदेश में प्रसारित हुआ । इस मत के पूज्य पाँच 1 पू० जीवराजजी 2 पू० श्री लवजी ऋषि, 3. पू० श्री धर्मसिंहजी, 4. पू० श्री धर्मदासजी श्रौर 5 पू० श्री हरजी ऋषि हुए हैं जिनका और उनके मुख्य शिष्यों का वर्णन आगे किया जावेगा । वी स 2040 (वि.सं 1570 – ई सं . 1513) में लोंका गच्छ से बीजा नाम के वेष धर से, बीजा-मत की उत्पत्ति हुई जिसको 'विजय गच्छ' कहने लगे । आधुनिक काल (वीर सं. 2001 से वीर सं. 2500 तक )
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वी. सं. 1001 से वी. सं. 2000 ( वि सं. 531 से वि. सं. 1530 – ई. सं. 474 से ई. स. 1473 ) तक के लम्बे समय में जैन धर्म के इतिहास में, कई जैन तीर्थों की स्थापना हुई और प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश
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