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भाषानों में प्रचुर मात्रा में जैन साहित्य लाखों श्लोक प्रमारण में लिखा गया जो कि एक महान् कीर्तिमान है। भारतीय वाङमय को जैन साहित्य ने जो योगदान दिया है वह अतुलनीय और अपूर्व है। सहस्रों और लाखों हस्तलिखित शास्त्र, जो विविध विषयों पर जैन श्रमणों और कुछ जैन श्रावकों ने लिखे हैं, इस देश की अमूल्य निधि है और उनका विदेशी विद्वानों ने अपनी अपनी भाषा में अनुदित कर विश्व में जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों का, प्राध्यात्मिक और वैज्ञानिक ढंग से प्रचार और प्रसार किया है। श्रमण संघ में, चैत्यवासियों की शिथिलता के कारण, विधि मार्ग और सुविहित मार्ग का प्राश्रय लेकर क्रियोद्धार हुआ है और क्रियोद्धार के साथ-साथ गुण पूजक लोंकामत ( जो आगे चलकर स्थानकवासी सम्प्रदाय के नाम से विख्यात हुआ ) का प्रादुर्भाव हुआ।
तत्पश्चात् वी स. 2001 (वि. स. 1531-ई स 1473 ) से वी. स. 2500 (वि. स. 2030-ई. स. 1973) तक 500 वर्ष की अवधि में जैन धर्म के स्वरूप का दिग्दर्शन मात्र कराना शेष रह जाता है। वी स. 2042 ( वि. स. 1572-ई. स. 1515 ) में तपागच्छ नागपुरीय शाखा में पार्श्वचन्द्र उपाध्याय से पार्श्वचन्द्र गच्छ की उत्पत्ति हुई और वी. स 2052 (वि स. 1572-ई. स. 1525 ) में प्रा. आनन्द विमल सूरि हुए जिन्होंने कितनेक साधुनों का गुरु प्राज्ञा ने क्रियोद्धार किया । वी. स. 2057 (वि स. 1587 ई स 1530) में प्रा. विजयदान सूरि को प्राचार्य पद मिला और कर्माशाह चित्तौड़ के विख्यात जैन व्यापारी ने शत्रुञ्जय का सोलहवाँ उद्धार कराया। कर्माशाह का पिता तोलाशाह के धर्म गुरु आ धर्मरत्न सूरि थे जो एक बार सङ्घ सहित चित्तौड़गढ़ तीर्थ पर पधारे तो राणा सांगा ने हाथी, घोड़ा आदि सैन्य सहित उनका स्वागत किया तथा उनके उपदेश से शिकार और दुर्व्यसनों का त्याग भी किया था।
___ जगत्गुरु आचार्य श्री हीर विजय सूरि- वीर सवत् की 21 वीं शताब्दी (विक्रम की 16 वीं सदी) में मुगल सम्राट अकबर के समय में, प्राचार्य 1. जैन परम्परा नो इतिहास भाग तीजो। लेखक-त्रिपुटी महाराज पृ. 34
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