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श्री हीर विजय सूरि प्रकाण्ड और प्रख्यात जैन श्रमण हुए जिनको बादशाह अकबर ने 'जगत्गुरु' के विरुद से अलंकृत किया । प्रा. श्री हीर विजय सूरि का जन्म वी.स 2053 वि.स. 1583 ई.स. 1526 और दीक्षा वी. स. 2066 वि. स. 1596 ई स. 1539 में हुई । अकबर बादशाह ने आगरा में जब चंपा श्राविका के छह महीने की तपस्या करने पर बहुमान करने के लिये वरघोड़ा ( धार्मिक जैन जुलूस) देखा तो उनकी श्राविका चंपा के गुरु प्रा. हीर विजय सूरि के दर्शन करने की जिज्ञासा जागृत हुई। उन्होंने प्राचार्य श्री को गुजरात से फतहपुर सीकरी बुलाया जहाँ पर प्रथम दर्शन होने पर बादशाह बहुत प्रभावित हुआ। उस समय प्राचार्य श्री के साथ 67 मुनि थे और उनमें प्रमुख महोपाध्याय शान्तिचन्द्र गरिण और महो. भानुचन्द्र गणि थे । 4 वर्ष तक अकबर को प्राचार्य श्री ने फतहपुर विराज कर धर्मोपदेश सुनाया और जैन शासन के लिये पशु पक्षियों का शिकार, मांसाहार आदि बन्द कराया यहाँ तक कि स्वयं सम्राट अकबर ने जो प्रात: 500 चिड़ियों की जिह्वानों का कलेवा करता था वह बन्द कर दिया। छः महीने तक के लिए अमारि (अहिंसा) का फरमान प्राचार्य श्री ने निकलवाया तथा अन्य भी जैन तीर्थ सम्बन्धी अनुज्ञा-पत्र जारी कराये और जजिया कर माफ कराया। ची. स. 2110 ( वि स. 1640-ई स. 1583) ने फतहपुर सीकरी में श्रा हीर विजय सूरि के शिष्य पं. भानुचन्द्र गरिण को 'महोपाध्याय' का विरुद दिया । कहा जाता है कि अन्त में अकबर ने प्राचार्य श्री के उपदेश से मांसाहार भी बन्द कर दिया। इस विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार विसेन्ट ए. स्मिथ के शब्द उद्धृ त करना उपयुक्त होगा।
"उसने मांसाहार बहुत कम कर दिया और करीब करीब उसका उपभोग बिल्कुल छोड़ दिया। अपने जीवन के पिछले वर्षों में जब वह जैन प्रभाव में आया।"
"किन्तु जैन साधु ने निःसन्देह, वर्षों तक लमातार अकबर को उपदेश सुनाये जिससे उसके चरित्र पर भारी प्रभाव पड़ा और उन्होंने उनके
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