Book Title: Shraman Parampara Ki Ruprekha
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Bhagwan Mahavir 2500 Vi Nirvan Samiti

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Page 37
________________ 1231 अहंद वली ने आगमों का चार अनुयोग में विभाजन किया था। उपरोक्त प्राचार्य वज्रसेन सूरि के चार शिष्यों से चार कुल और उनसे पेटाभेद होते हुए 84 गच्छ हुए। आज जो श्रमण संघ विद्यमान है, वह कोडियगरण और इसकी शाखा चन्द्र कुल का गिना जाता है। प्रा. स्कंदिल के समय में वी सं 830 (वि. सं. 360-ई. म 303)से वी. सं 840 (वि. सं. 370 ई.सं. 313) के बीच में चौथी वांचना मथुरा में हुई। वि. सं. 882 (वि. सं. 412-ई. स 355) से कुछ श्रमण चैत्य (जिन मन्दिर) में रहने लगे अर्थात् वनवास छोड़कर बस्ती में रहने लगे और धीरे-धीरे घरवासी बन गये। इस प्रकार दिगम्बर मुनि भी वनवास छोड़कर निसिहिया में रहने लगे और भट्टारक कहे जाने लगे। वी. स. 833 ( वि. स. 363-ई. स. 306) के अासपास प्रसिद्ध प्रा. मस्तवादी हुए जिन्होंने नय चक्र--1000 श्लोक प्रमारण न्याय ग्रन्थ की रचना की । वी.म. 974 (वि स. 504-ई.स. 447) के साल वल्लभीनगर में राजा शिलादित्य के प्राग्रह पर आ धनेश्वर सूरि ने शत्रुजय माहात्म्य की रचना की। वी स. 980 (वि. स. 510-ई. स. 453)-में क्षमा-श्रमण देवद्धिगरिण ने जैनागमों को, 500 जैनाचार्यों को वल्लभीनगर में एकत्रित कर आगमों को पुस्तकारूढ़ किये अर्थात् उनके मुख से अवशेष रहे हए आगमों के पाठ को लिपि-बद्ध किया जिसकी अध्यक्षता प्राचार्य नागार्जुन ने की ।। इन्हीं देवद्धिगरण क्षमा श्रमरण के समय जैन धर्म के सर्व शिरोमरिण कल्पसूत्र की प्रथम वांचना गुजरात के प्रानन्दपुर में प्रा. धनेश्वर मुरि ने वहाँ के राजा ध्र वसेन को, उनके इकलौते पुत्र की मृत्यु पर, शोक शमन के लिये की थी। । दूसरा मत यह भी है कि वी. स. 830 से 840 (विक्रम स. 360 से 370-ई. म. 303 से 313) तक, प्राचार्य स्कंदिल सूरि ने मथुरा में और प्राचार्य नागार्जुन ने इसी समय में, वल्लभी में सर्व सम्मत प्रागम पाठ को पुस्तक रूप में लिखा । स्कंदिल सूरि प्राचार्य ने उत्तरापथ के जैन श्रमणों को और प्राचार्य नागार्जुन ने दक्षिण पथ के जैन श्रमणों को एकत्रित कर चौथी पागम बाचना की। 'जैन परम्परा नो इतिहास (भाग 1 लो) पृष्ट 390-391 । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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