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कराया और सारे राज्य में उनके धर्मोपदेश से अमारि पलाई थी ।। उसी समय में प्रा. जिनप्रभ सूरि हुए थे जिन्होंने मुसलमान सम्राटों को प्रतिबोध करने में पहल की थी। वे विख्यात 'विविध तीर्थ कल्प' के रचयिता भी थे।
वी. सं. 1802 (वि. सं. 1332-ई. स. 1275) में प्रा. सोमप्रभु सूरि, समर्थ ग्रन्थकार हुए हैं उनका ग्रन्थ 'सिन्दूर प्रकरण' सूक्त मुक्तावली या सोमशतक) प्रसिद्ध है और उसको जैन समुदाय के सब लोग मानते हैं । उसके बाद वी. सं. 1804 (वि. सं. 1334 ई. स. 1277) में प्रा. प्रभाचन्द्र सूरि के 'प्रभावक चरित्र' और धर्मकुमार मुनि ने 'शालिभद्र चरित्र' लिखा । वी. सं. 1819 (वि. सं. 1349 ई. स. 1292) में प्रा, मल्लिषेरण सूरि ने स्याद्वाद मंजरी और प्रा. मेरुतुग सूरि ने वी. सं. 1832 (वि. सं. 1362-ई.स.1305)में 'प्रबन्ध चितामणि' और वी.सं. 1875 (वि.स.1405 ई. स. 1348) राजशेखर सूरि हुए जिन्होंने 'प्रबन्ध कोष' और 'स्याद्वादकलिका, ग्रन्थों की रचना की।
' वी. सं. 1841 (वि. सं. 1371-ई. स. 1314) में ओसवाल समराशाह ने शत्रु जय तीर्थ का 15वाँ जीर्णोद्धार कराया । वी. मं. 1846 (वि. स. 1376-ई.स. 1319) में खरतर गच्छ के कलिकाल केवलो जिनचन्द्र सूरि का स्वर्गवास हुा । प्रा. जिनचन्द्र सूरि ने प्राकृत भाषा में एक महत्त्वपूर्ण वृहद् ग्रन्थ 'संवेगरंगशाला' बनाया था। वी. स. 1838 (वि. स. 1368ई. स. 1312) में आबू पर पीतल की धातु प्रतिमा विमल वसहि में और कसौटी पाषाण की लूण वसहि में प्रतिमा, यवनों द्वारा सभवत: अलाउद्दीन खिलजी की सेना द्वारा भंग होने पर, 10 वर्ष बाद वी. स. 1848 (वि. स. 1378-ई. स. 1321) में विमल वसहि के मूल नायक की वर्तमान पाषाण की भगवान ऋषभदेव की श्वेत मूर्ति को श्रावक लल्ल और बीजड2 ने और लूण वसहि के मूल नायक नेमिनाथ की श्याम वर्ण की मूर्ति को, श्रावक । 'Jainism in Rajasthan' Dr. K C. Jain, p. 29-30 2 'जैन परम्परा नो इतिहास, ( भाग तीजो ) लेखक त्रिपुटी पहाराज
पृ. 389-390
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