Book Title: Shraman Parampara Ki Ruprekha
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Bhagwan Mahavir 2500 Vi Nirvan Samiti

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Page 41
________________ [271 प्रादि की भी रचना की। उनके भाई शोमन जैनमुनि थे जिन्होंने 'यमक-युक्त' चौबीस तीर्थकारों की स्तुतियाँ लिखी हैं। वी. सं. 1512 (वि. स. 1042-ई. स. 985) में पार्श्वनाथ सरि ने 'प्रात्मानुशासन' की तथा वी. स. 1514 ( वि. स. 1044. ई. स. 987 ) में मेवाड़ वासी दिगम्बर कवि हरिषेण ने 'धम्मपरिक्खा', महान ग्रन्थ की रचना की थी । वी. स. 1554 ( वि. स. 1084-ई स. 1027 ) में पाटग के राजा दुर्लभ ने जिनेश्वर सूरि को, दशवकालिक सूत्र के प्रमाण से, चेत्यवासियों का जोर बढ़ जाने से, सही मार्ग सिद्ध करने पर खरतर उपनाम विरुद दिया, वी. सं 1558 ( वि. स. 1088-ई स. 1031 ) नवांगी टीकाकर अभयदेव सूरि की दीक्षा हुई और प्राबू देलवाड़ा के विमल वसहि प्रख्यात व अनुपम विश्व के कलाकृत मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई। अभयदेव मूरि की 'नवांगी टीका' में 47 हजार श्लोक प्रमाण हैं और उसमें ज्ञान और चरित्र का अपूर्व सामंजस्य भरा हुअा है, वीर सवत की 16 वीं शताब्दी (विक्रम की 11 वीं सदी) में श्वेताम्बर दिगम्बर प्राचार्यों ने विपुल और विस्तृत टीकाएँ न्याय शास्त्र पर लिखी हैं । प्राचार्यों के पितामह सिद्धसेन दिवाकर माने जाते हैं, मा. मल्लवादी, प्रा. हरिभद्र देवसूरि दिगम्बर आ० अकलंक, प्रा. प्रभाचन्द प्रादि ने इस क्षेत्र में उत्कृष्ट साहित्य लिखा है । यह समय सोलहवीं शताब्दी का समय न्याय शास्त्र का विकास काल कहा जा सकता है। सर्वाधिक साहित्य स्रष्टा प्राचार्य हरिभद्र सरि ___ वीर सवत की 13 वीं सदी ( विक्रम की 8 वीं सदी में ) म्व० मुनि जिनविजय जी विद्वान पुरातत्ववेत्ता के अनुसार,1444 विविध जैन ग्रन्थों के रचयिता चौदह विद्यानिधान, समाज व्यवस्थापक. परम दार्शनिक विद्वान प्राचार्य श्री हरिभद्र सूरि हुए जो चित्रकूट ( चित्तौड़गढ़ ) राजस्थान के निवासी थे, उन्होंने उस समय प्रचलित चैत्यवासी साधुओं के शिथिलाचार | पर ‘सम्बोध-प्रकरण' में बड़ा प्रहार किया है । या किनी महतरा के धर्म-पुत्र । कहलाते थे और प्रा० जिनदत सूरि के शिष्य थे। उन्होंने कथा साहित्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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