Book Title: Shraman Parampara Ki Ruprekha
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Bhagwan Mahavir 2500 Vi Nirvan Samiti

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Page 39
________________ [25] जैन व बौद्ध हुए हैं और उनको 'परम भट्टारक व 'परम महेश्वर' कहते थे और ब्राह्मण सन्तानीय थे ।। राजा भर्तृ-भट्ट ने भटेवर ( जिला उदयपुर ) में किला बनवाया तब प्रा. बुड्ढामणि ने भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई और जैन मन्दिर जहाँ मूर्ति प्रतिष्ठापित कराई उसका नाम 'गुहिल विहार' रखा गया । इसी प्रकार राजा अल्लट ने भी पाहाड में पार्श्वनाथ प्रभु की मूर्ति की प्रतिष्ठा सांडरेक गच्छ के श्री यशोभद्र सूरिजी के हाथ से कराई थी। वी. स. 105 5 से 1155 (वि. स. 585 से 685-ई. स. 528 से 628) के समय में श्री जिनभद्र गरिण क्षमा श्रमण हुए जो क्षमा श्रमणों में एक निधान थे। ये सर्व विद्या विशारद और प्रागमों के वास्तविक अर्थ के ज्ञाता थे। उन्होंने वल्लभी राजा शिलादित्य के राज काल में श्री महावीर जिनालय में 4300 ग्रन्थ प्रमाण विशेषावश्यभाष्य रचा जो जैन साहित्य में मुकुटमरिण समान समझा जाता है। ये उत्कृष्ट व्यान्याता भी थे। वी. सं. 1270 ( वि. सं. 800-ई. स. 743) के आस-पास प्राचार्य प्रद्य म्न सूरि हुए जिन्होंने अत्सु राजा की सभा में दिगम्बरों को वाद में हराया था एवं सपादलक्ष और त्रिभुवन मिरि आदि राजाओं को जैन धर्मी बनाया। इसी समय पा. मानतुग सूरि ने 'भक्तापर म्तोत्र' भगवान ऋषभदेव की स्तुति में रचा था जो जैन समाज में बहुत प्रतिष्ठित है । वी. स. 1272 (वि. स. 802-ई. स.745) में प्रा. शीलगुण सूरी के उपदेश से गुजरात की राजधानी पाटण स्थापना होने के साथ साथ वहां पंचासरा पार्श्वनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर प्राद्य राजा वनराज ने निर्माण करवाया जिसके बाद श्रीमालों व पोरवालों का प्रभुत्व बढ़ता गया जो भिन्नमाल छोड़ कर पाटण में ना बसे । वी. स. 1354 (वि स. 884-- ई. स. 827 ) में 'द्विसधान' काव्य के कर्ता धनञ्जय महाकवि हुए और वी म. 1354 वि. स. 895-ई. स. 838) में अपरिमित ज्ञानी अखण्ड ब्रह्मचारी व जैन धर्म प्रचारक प्रा. बप्पभटि का स्वर्गवास हुअा जिन्होंने ग्वालियर के ग्राम राजा को प्रतिबोध किया। वी. स. 1389 ( वि. स. 1 वही. पृ. 387 । 2, Jainism in Rajasthan' D.I. K. C Jain, P. 29 : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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