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सूरि हुए जिनके समय में दूसरे कालकाचार्य और हुए जिन्होंने अपनी बहन सरस्वती के साथ जैन दीक्षा ग्रहण की। सरस्वती साध्वी का अति रूपवती होने से उज्जैन के राजा गर्द मिल्ल ने अपहरण किया । कालकाचार्य ने ईरान से शाही राजाओं को बुलवा कर गर्द-मिल्ल को परास्त करा अपनी बहन साध्वी को छुड़वाकर प्रायश्चित देकर शुद्ध किया। शाही राजा जो शक कहलाये गर्द मिल्ल. वी. सं. 453-466 (वि. सं. पू. 17-वि. सं. पू. 4, ई. सं. पू. 74--ई. सं. पू. 61) को हरा कर उज्जैन पर वि. सं. 466 से 470 (वि. सं. पू. 4 से वि. सं. पू. 1-ई. सं. पू. 61 से ई. सं. पू. 58) तक राज्य किया। शक संवत् भी उन्होंने चलाया था। तदनन्तर कालकाचार्य के भारणेज बल मित्र-भानुमित्र--अवन्तिपति बना जो विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुना। इन्होंने ही विक्रम संवत् चलाया जो वीर निर्वाण संवत् 470 ( ई. स. पू. 57 ) की घटना है ।। कालकाचार्य ने विक्रमादित्य प्रतिष्ठानपुर ( पालनपुर ) के राजा सात वाहन को और ईरान के शकों को प्रतिवोध कर जैन धर्म का उपदेश दिया। कालकाचार्य वी सं. 460 ( वि.सं. पू. 10-ई. स पू 67 ) के लगभग स्वर्ग सिधारे । राजा विक्रमादित्य ने शत्रुजय का विशाल संघ निकाला जिन बिम्ब भराये और जैन मन्दिर भी बनवाये थे । तीसरे कालकाचार्य और हुए जिन्होंने प्रतिष्ठान पुर में सम्राट् शालिवाहन की विनती पर पर्युषण संवत्सरी भादवा शुद 5 से भादवा शुद 4 को कायम की जो आज भी मानी जाती है ।2 इनका समय वीर संवत् की पाँचवी सदी (वि. सं. 400 से 453 वि. सं. पू. 70 से वि. सं. पू.. 17----ई. सं. पू. 127 से ई. सं. पू. 74) मानते हैं । कोई इनका समय वि. सं. 993 (वि. सं. पू. 523 ई. सं. पू. 466) मानते हैं। महाराजा विक्रम के उज्जयिनी की राजगद्दी पर आसीन
1. 'जैन परम्परा नो इतिहास'--भाग 1 लो लेखक : त्रिपुटी महाराज।
पृ. 224 से 225 2. . 'जैन परम्परा नो इतिहास' भाग 1 लो, लेखक त्रिपुटी महाराज
पृ. 226-227
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