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भगवान् महावीर की परम्परा का सूक्ष्म विवेचन :
बौद्ध साहित्य में, भगवान् महावीर को श्रमरण न कहकर 'निर्गन्ध' 'ज्ञातपुत्र' से संबोधित किया गया है। भगवान् महावीर तप, त्याग और संयम द्वारा आत्म शोधकार थे। उनकी परम्परा, सुधर्मा स्वामी से लेकर भद्रबाहु पर्यन्त वीर निर्वारण से 609 (वि. सं. 139 ई. सं. 82 ) वर्ष तक दिगंबर मतानुसार वी० मं० 603 ( वि० सं० 133 - ई० सं० 76 ) तक एक शासन में चलो । तदनन्तर वस्त्र नग्नत्व के आधार पर, दो भेद श्वेताम्बर और दिगम्बर प्रारम्भ हुए। दिगम्बर साधु वस्त्र धारण नहीं करने से दिगम्बर और श्वेताम्बर वस्त्र रखने से श्वेताम्बर कहलाये । कालान्तर में, कुछ मत मतान्तर में अन्तर आया किन्तु वीर भगवान् के मूल सिद्धान्त प्राज तक दिगम्बर और श्वेताम्बर मानते हुए चले आ रहे हैं। वीर परमात्मा के निर्वाण से 2500 वर्ष में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों जैन समाज के संप्रदायों ने एक माथ मिल कर, भगवान् महावीर का 2500 व निर्वागा महोत्सव मनाया जो इस आधुनिक युग की महान उपलब्धि है । भद्रबाहु 12 वर्ष के दुष्काल पड़ने पर दक्षिण की ओर चले गये और यही कारण है कि प्रारम्भ में दिगम्बर मत दक्षिण की ओर अधिक विस्तृत हुआ । श्वेताम्बर मत विशेष कर बिहार, बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश तक सीमित रहा । आधुनिक काल में सारे भारत में यत्र-तत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर बिखरे हुए हैं । श्वेताम्बरों में भी वीर संवत् 1978 (वि. सं. 1508 -- ई. सं. 1451 ) में लोंका शाह ने लोंकामत ( ढूंढिया मत) चेत्यवासी साधुत्रों के शिथिला चरण देखते हुए मूर्ति पूजा को त्याग कर शास्त्रों के सिद्धान्तों पर चलाया जो मत आज 'स्थानकवासी' के नाम से प्रसिद्ध है । स्थानकवासी मुनि श्री रघुनाथजी के शिष्य श्री भीखरणजी ने और आगे वी. सं. 2288 (वि. सं. 1818 ई. सं. 1761 ) में अपने गुरु से अलग होकर तेरापंथ मत की स्थापना की जो श्राद्य आचार्य माने जाते हैं और 9 वें प्राचार्य वर्त्तमान अणुव्रत अनुशास्ता श्री तुलसी गरिए है जिन्होंने तेरापंथ का सर्वोन्मुखी विकासकिया है । तेरा पंथ का संगठन एक ही प्राचार्य के अनुशासन में चलता है जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीर स्थानकवासी समाज कई गच्छों, सिंघाड़ों
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