________________
[ 10 ] की व्याख्या, आत्मा और कर्म का विश्लेषण, प्रात्म विकास के मार्ग का प्रतिपादन, व्यक्ति और समाज के उत्थान पर बल एवं हिंसा अहिंसा का विवेक प्रादि का समावेश था। सबसे अधिक, उन्होंने अहिंसा का नारा बुलन्द किया। अत: वे 'अहिंसा के अवतार' माने जाते हैं। उन्होंने व्यक्त किया कि समस्त प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । जीवन सबको प्रिय है। 'जीयो और जीने दो' उनका महान् सिद्धान्त था। प्रात्मा में कोई भेद नहीं है । 'यात्मवत् सर्व भूतेषु' मानते हुए उन्होंने यही उपदेश दिया कि किसी प्राणी को कष्ट मत दो, किसी का तिरस्कार मत करो, पापी से नहीं पाप से पृणा करो । प्रात्मा से परमात्मा बनने के लिये पूर्णता प्राप्त करने के लिये, पांच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह--पालन करना प्रावश्यक है। उन्होंने यह भी शिक्षा दी कि सत्य सापेक्ष है। आपने जो देखा वह सत्य हो सकता है किन्तु दूसरे की दृष्टि बिन्दु से उसे देखना चाहिये और समझना चाहिये । यही उनके अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) का सिद्धान्त है, जिसके उज्ज्वल पालोक से सत्य को देखना और परखना सिखलाया । भगवान महावीर और समाज :
भगवान महावीर ने व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिये एक ओर जहाँ विश्वास का मार्ग प्रशस्त किया, वहाँ दूसरी पोर लोक कल्याण के लिये सामाजिक मूल्यों का भी सृजन किया। समाज में ऊँच-नीच, छूनाछूत, नारी-बंधन और दलित वर्ग शोषण को अहिंसा के प्रतिकूल बतलाते हुए मानव प्रतिष्ठा, नारी स्वतन्त्रता और समाजवाद का सच्चा और सही रास्ता दिखलाया। जमा खोरी, मुनाफा खोरी और संग्रहवृत्ति को हेय बतला कर अपरिग्रह का पाठ पढ़ाया। सांसारिक वस्तुओं के प्रति प्रासक्ति कम करके, अपनी जरूरत से ज्यादा वस्तुओं के त्याग करने की शिक्षा दी। हिंसा का ताण्डव नृत्य एक देश के साथ दूसरे देश का युद्ध, समाज के कलह-क्लेश, एक दूसरे के विचारों को समझने, सम्मान करने और समन्वय करने से मिट सकते हैं और सारे संसार में सुख तथा शान्ति का साम्राज्य संस्थापित हो सकता है। 1. 'भगवान् महावीर जीवन और उपदेश ।' प्रकाशक...... भगवान महावीर
2500 वां निर्वाण महोत्सव महासमिति, उदयपुर राजस्थान । पृ. 27
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com