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समय में मगध के नन्द राजा के ब्राह्मण मंत्री कल्पक ने जैन धर्म अंगीकार किया । कल्पक के वंश में शकडाल या शकठल महामन्त्री बना । श्री-माल नगर, जहाँ से पोरवाल (प्राग्वाट) जैनियों की उत्पत्ति मानी जाती है, भिन्नमाल कहा जाने लगा । वी. सं. 70 (वि. सं. पू. 400 ई. सं. पू. 457) से ओसिया और कोरटा दोनों राजस्थान तीर्थ रूप में गिने जाने लगे। .
4. आर्य श्री शय्यंभव सुरि (वी. सं. 75 से 98–वि. सं. प. 395 से वि. सं. पू. 372-ई. सं. प. 452 से ई. सं पू. 429) को जैन संघ ने, श्री प्रभवस्वामी के योग्य शिष्य न होने से, राजगृह के क्रिया-चुस्त ब्राह्मण को दीक्षित कर पट्टधर स्थापित किया। जब श्री शैय्यंभव सूरि ने दीक्षा ली तब उनकी स्त्री गर्भवती थी। पत्र का जन्म होने पर, उसका नाम 'मनक कुमार' रखा गया जिसने अपने पिता की खोज कर उनसे दीक्षा ले ली। गुरु पिता ने बाल मुनि की आयु 6 महीने की शेष जानकर वी. सं. 82 (वि. सं. पू. 388--ई. सं. पू. 445) के लगभग श्री दशवैकलिक सूत्र की रचना की। यह सूत्र श्रमरणों के लिये, साधु जीवन के पालने के लिये उपयोगी माना जाता है और स्वाध्याय में आज भी चलता है।
... 5. श्री यशोभद्र सूरि (वी. सं. 98 से 148–वि. सं. पू. 372 से 322-ई. सं. प. 429 से 379) पाँचवें पट्टधर और ... 6: श्री संभूतिविजयजी ( वी. सं. 148 से 156–वि. सं. पू. 322 से वि. सं. पू. 314--ई स. पू. 379 से ई. सं. पू. 371) छठे पट्टधर हुए और उनके बाद सातवें पट्टधर श्री भद्रबाहुस्वामी थे।
7. श्री भद्रबाहु स्वामी ( वी. सं. 156 से 170–वि. सं. पू. 314 से वि. सं. पू. 300-ई. सं. पू. 371 से ई. स. पू. 357 ) विख्यात श्रु तशानी हुए हैं जिन्होंने दशाश्रु त कल्प, कल्प-श्रुत ( कल्प-सूत्र ) और व्यवहार सूत्र की रचना की। ये चौदह पूर्व धारी थे और 'उपसर्गहरं स्तोत्र' के रचयिता है जो स्तोत्र जैन शासन के कष्टों के निवारण हेतु उपयोग में आता है और इसका पाठ भी किया जाता है। आधुनिक दिगम्बर विद्वान मानते हैं कि ये श्रु त केवली आचार्य भद्रबाहु, बारह वर्ष के दुष्काल पड़ने
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