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( १८ ) और खिलानेमें कोई भेद नहीं है । रात्रि-भोजन-त्याग प्रतिमाधारीके लिए कहा है कि जो चतुर्विध आहारको स्वयं न खानेके समान अन्यको भी नहीं खिलाता है वही निशि भोजन व्रती है। ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारीके लिए देवी, मनुष्यनी, तिर्यंचनी और चित्रगत सभी प्रकारकी स्त्रियोंकी मन, वचन, कायसे अभिलाषाके त्यागका विधान किया है। आरम्भविरत प्रतिमाधारीके लिए कृत, कारित और अनुमोदनासे आरम्भका त्याग आवश्यक बताया है। परिग्रह त्याग प्रतिमा में
बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहके त्यागनेका विधान किया है। अनुमतिविरतके लिए गृहस्थीके किसी भी कार्यमें अनुमतिके देनेका निषेध किया है। उद्दिष्टाहारविरतके लिए याचना-रहित और नवकोटिविशुद्ध योग्य भोज्यके लेनेका विधान किया गया है। स्वामी कात्तिकेयने ग्यारहवीं प्रतिमाके भेदों का कोई उल्लेख नहीं किया है जिससे पता चलता है कि उनके समय तक इस प्रतिमाके दो भेद नहीं हुए थे।
स्वामिकात्तिकेयने अपने इस 'अणुवेक्खा' ग्रन्थके अन्त में जो प्रशस्ति दी है, उससे उनके समय पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है, केवल इतना ही ज्ञात होता है कि स्वामिकुमारने यह ग्रन्थ जिनवचनकी प्रभावना तथा अपने चंचल मनको रोकनेके लिए बनाया है। ये बारह अनुप्रेक्षाएं जिनागमके अनुसार कही गयी हैं। जो इन्हें पढ़ता, सुनता और भावना करता है वह शाश्वत सुखको पाता है। कुमारकालमें दीक्षा ग्रहण करनेवाले वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पार्श्व और महावीर इन पाँच बालब्रह्मचारी तीर्थंकरोंकी मैं स्तुति करता हूँ।
परिचय और समय उक्त प्रशस्तिसे केवल यही ज्ञात होता है कि इसके रचयिता स्वामीकुमार थे, वे बालब्रह्मचारी रहे हैं, क्योंकि उन्होंने कूमारावस्थामें ही दीक्षा ग्रहण करनेवाले पाँच तीर्थकरोंका अन्तमें स्तवन किया है। कात्तिकेयके अनेक पर्यायवाची नामोंमें एक नाम 'कुमार' भी है, सम्भवतः इसी कारण यह स्वामिकात्तिकेय-रचित प्रसिद्ध हुआ है। सर्वप्रथम इस नामका उल्लेख इसके संस्कृतटीकाकार श्री श्रु तसागरने ही किया है ।
इनका समय बहुत ऊहापोहके बाद श्री जुगलकिशोर मुख्तारने विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दी प्रकट किया है।
स्वामीकुमार या कात्तिकेय द्वारा रचित किसी अन्य ग्रन्थका कहीं कोई उल्लेख अभीतक नहीं मिला है।
५. रत्नमाला-आ० शिवकोटि ___ आ० शिवकोटिने रत्नमाला नामक एक लघुकाय ग्रन्थकी रचना की है, जिसमें उन्होंने रत्नत्रय धर्मकी महत्ता बतलाते हुए भी श्रावकधर्मका ही प्रमुखतासे वर्णन किया है । सर्व प्रथम सम्यक्त्वकी महिमा बता कर वीतरागी देव, सत्प्रतिपादित शास्त्र और निरारम्भी दिगम्बर गुरुके श्रद्धान करनेको सम्यक्त्व कहा है और बताया है कि प्रशम-संवेगादिवान्, तत्त्वनिश्चयवान् मनुष्य जन्म-जरातीत मोक्ष पदवीको प्राप्त करता है। पुनः श्रावकोंके १२ व्रतोंका उल्लेख कर दिग्वत, अनर्थदण्डविरति और भोगोपभोगसंख्यान ये तीन गुणव्रत तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिपूजन और मारणान्तिकी सल्लेखना ये चार शिक्षावत कहे हैं। इन्होंने समन्तभद्र-प्रतिपादित आठ
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