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रत्नकरण्डके अतिरिक्त आपको निम्नांकित रचनाएँ उपलब्ध हैं
१. बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, २. देवागमस्तोत्र ( आप्तमीमांसा ), ३. स्तुति विद्या ( जिनशतक ), ४. युक्त्यनुशासन ।
इनके सिवाय १. जीवसिद्धि, २. तत्त्वानुशासन, ३ प्रमाण पदार्थ, ४. गन्धहस्तिमहाभाष्य, ५. कर्मप्राभृतटीका और ६. प्राकृत व्याकरणके रचनेका भी उल्लेख मिलता है।
४. कातिकेयानुप्रेक्षा-स्वामी कातिकेय स्वामी कार्तिकेयने अनुप्रेक्षा नामसे प्रसिद्ध अपने ग्रन्थमें धर्म भावनाके भीतर श्रावक धर्मका विस्तृत वर्णन किया है । इनके प्रतिपादनकी शैली स्वतंत्र है। इन्होंने जिनेन्द्र उपदिष्ट धर्मके दो भेद बताकर संगासक्तों-परिग्रहधारी गृहस्थोंके धर्मके बारह भेद बताये हैं। यथा-१. सम्यग्दर्शनयुक्त, २. मद्यादि स्थूल-दोषरहित, ३. व्रतधारी, ४. सामायिकी, ५. पर्ववती, ६. प्रासुक आहारी, ७ रात्रिभोजन विरत, ८. मैथुन त्यागी, ९. आरम्भत्यागी, १०. संगत्यागी, ११. कार्यानुमोदविरत और १२. उद्दिष्टाहारविरत । इनमें प्रथम नामके अतिरिक्त शेष नाम ग्यारह प्रतिमाओंके हैं । यतः श्रावकको व्रत धारण करने के पूर्व सम्यग्दर्शनका धारण करना अनिवार्य है अतः सर्वप्रथम उसे भी गिनाकर उन्होंने श्रावक-धर्मके बारह भेद बतलाये हैं और उनका वर्णन पूरी ८५ गाथाओं में किया है। जिनमेंसे २० गाथाओं में तो सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति, उसके भेद, उनका स्वरूप, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी मनोवृत्ति और सम्यक्त्वका माहात्म्य बहुत सुन्दर ढंगसे वर्णन किया है, जैसा कि अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। तत्पश्चात् दो गाथाओं द्वारा दार्शनिक श्रावकका स्वरूप कहा है, जिसमें बताया गया है कि जो वस-समन्वित या अस-घातमे उत्पन्न मांस, मद्य और निंद्य पदार्थोंका सेवन नहीं करता, तथा दृढ़चित्त, वैराग्य-भावना-युक्त और निदान रहित होकर एक भी व्रतको धारण करता है. वह दार्शनिक श्रावक है। तदनन्तर उन्होंने प्रतिक श्रावकके १२ व्रतोंका बड़ा हृदयग्राही, तलस्पर्शी और स्वतंत्र वर्णन किया है, जिसका आनन्द इस ग्रन्थका अध्ययन करके ही लिया जा सकता है। उन्होंने कुन्दकुन्द-सम्मत तीनों गुणवतोंको तो माना है, परन्तु शिक्षाव्रतोंमें कुन्दकुन्द स्वीकृत सल्लेखनाको न मानकर उसके स्थान पर देशावकाशिकको माना है। इन्होंने समन्तभद्रके समान अनर्थ दंडक पाँच भेद कहे हैं। स्वामिकात्तिकेयने चारों शिक्षाव्रतोंका विस्तारके साथ विवेचन किया है। सामयिक शिक्षाबतके स्वरूपमें आसन, लय, काल आदिका वर्णन द्रष्टव्य है। इन्होंने प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतमें उपवास न कर सकनेवालेके लिए एक भक्त, निर्विकृति आदि करनेका विधान किया है। अतिथि संविभाग शिक्षाव्रतमें यद्यपि चारों दानोंका निर्देश किया है, पर आहार दान पर खास जोर देकर कहा है कि एक भोजन दानके देने पर शेष तीन स्वतः ही दे दिये जाते हैं। चौथे देशावकाशिक शिक्षाव्रतमें दिशाओंका संकोच और इन्द्रिय विषयोंका संवर प्रतिदिन आवश्यक बताया है। इसके पश्चात् सल्लेखनाके यथावसर करनेकी सूचना की गयी है। सामायिक प्रतिमाके स्वरूपमें समन्तभद्रके समान कायोत्सर्ग, द्वादश आवर्त. दो नमन और चार प्रणाम करनेका विधान किया है। प्रोषध प्रतिमामें सोलह पहरके उपवासका विधान किया है। सचित्त त्याग प्रतिमाधारीके लिए सर्व प्रकारके सचित्त पदार्थोके खानेका निषेध किया है और साथ ही यह भी आदेश दिया है कि जो स्वयं सचित्तका त्यागी है उसे सचित्त वस्तु अन्यको खानेके लिए देना योग्य नहीं है, क्योंकि खाने
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