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अर्थात्-भद्रबाहु श्रुतकेवलीको बंश परम्परामें जो यति (साघु) रूप रत्नमाला शोभित हुई, उसमें मध्यवर्ती मणिके समान प्रचण्ड तेजस्वी कुन्दकुन्द मुनीन्द्र हुए। उन्हींके पवित्र वशमें सकलार्थवेत्ता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत शास्त्रसमूहको सूत्ररूपसे रचा। ये उमास्वाति गृद्धपिच्छाचार्यक नामसे भी प्रसिद्ध हैं। उनके समान उस कालमें समस्त तत्त्वोंका वेत्ता और कोई नहीं था।
उक्त शिलालेखोंसे उमास्वातिका कुन्दकुन्दाचार्यके अन्वयमें होना प्रकट होता है, किन्तु नन्दिसंघकी पट्टावलीमें उनको कुन्दकुन्दके पट्टपर वि० सं० १०१ में बैठनेका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस पट्टावलीके अनुसार उमास्वाति ४० वर्ष ८ मास आचार्य पदपर रहे हैं। उनकी आयु ८४ वर्षकी थी और वि० सं० १४२ में उनके पट्ट पर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए । इस प्रकार उमास्वातिका समय विक्रमको प्रथम शतीका अन्तिम चरण और दूसरी शतीका पूर्बाध सिद्ध होता है।
तत्त्वार्थसूत्रका श्रावकधर्म-प्रतिपादक उक्त सातवाँ अध्याय सानुवाद श्रावकाचार-सग्रहके तीसरे भागके परिशिष्टमें दिया गया है । उमास्वातिकी अन्य रचनाका कोई उल्लेख अभी तक कहींसे नहीं मिला है।
रत्नकरण्डश्रावकाचार-स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थसूत्रके पश्चात् श्रावकाचारपर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखनेवाले स्वामी समन्तभद्रपर हमारी दृष्टि जाती है, जिन्होंने रत्नकरण्डक रचकर श्रावकधर्म-पिपासु एवं जिज्ञासु जनोंके लिए सचमुच रत्नोंका करण्डक ( पिटारा) ही उपस्थित कर दिया है। इतना सुन्दर और परिष्कृत विवेचन उनके नामके ही अनुरूप है।
रत्नकरण्डकमें कुछ ऐसा वैशिष्ट्य है जो अपनी समता नहीं रखता। धर्मकी परिभाषा, सत्यार्थ देव,शास्त्र, गुरुका स्वरूप, आठ अंगों और तीन मूढ़ताओंके लक्षण, मदों के निराकरणका उपदेश, सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्रका लक्षण, अनुयोगोंका स्वरूप, सयुक्तिक चारित्रकी आवश्यकता और श्रावकके बारह व्रतों तथा ग्यारह प्रतिमाओंका इतना परिमार्जित और सुन्दर वर्णन अन्यत्र देखनेको नहीं मिलता।
श्रावकोंके आठ मूल गुणोंका सर्वप्रथम वर्णन हमें रत्नकरण्डमें ही मिलता है। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार पाँच अणुव्रत मूल गुण रूप और सात शीलवत उत्तर गुण रूप हैं और इस प्रकार श्रावकोंके मूल और उत्तर गुणोंकी सम्मिलित संख्या १२ है। परन्तु दिगम्बर परम्परामें श्रावकोंके मूलगुण ८ और उत्तर गुण १२ माने जाते है । स्वामिसमन्तभद्रने पाँच स्थूल पापोंके और मद्य, मांस, मधुके परित्यागको अष्टमूलगुण कहा है, परन्तु श्रावकके उत्तर गुणोंको संख्याका कोई उल्लेख नहीं किया है। हाँ, परवर्ती सभी आचार्योंने उत्तरगुणोंकी संख्या १२ ही बताई है।
इसके अतिरिक्त समन्तभद्रने अपने सामने उपस्थित आगम-साहित्यका अवगाहन कर और उनके तत्त्वोंको अपनी परीक्षा-प्रधान दृष्टिसे कसकर बुद्धि-ग्राह्य ही वर्णन किया है। उदाहरणार्थतत्त्वार्थसूत्रके सम्मुख होते हुए भी उन्होंने देशावकाशिकको गुणव्रत न मानकर शिक्षाव्रत माना और भोगोपभोग परिमाणको चारित्रपाहुडके समान गुणव्रत ही माना । उनकी दृष्टि इस बातपर अटकी कि शिक्षाव्रत तो अल्पकालिक साधना रूप होते हैं, पर भोगोपभोगका परिणाम तो यम
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